Thursday, December 15, 2022

क्या करूँ इस सड़क का अब...?


अब सड़कों का जाल बिछाने 
लगे हुए हैं गाँव मे
जब लोग सारे करके पलायन 
जा चुके शहर, किराये के मकां मे 

जब जरूरत थी गाँव को 
मूलभूत सुविधाएं और रोड की 
तब ना दर्द का एहसास था किसी को 
ना फिक्र थी किसी की चोट की 

कैसे जननी जनती थी शिशु को 
नदी नाले और डोली मे 
कैसे वृद्ध ने हार कर तोड़ी सांसे 
कितना दुःख डाला गाँव की झोली मे 

मीलों पैदल चलकर माँ बहने 
पानी ढोकर लाती थीं 
करके खून पसीने का सौदा 
दो वक्त की रोटी खाती थी 

बच्चों ने जान हथेली मे रख कर 
थोड़ी बहुत शिक्षा पायी थी 
गहरी खाई और रपटते रास्तों मे 
बहुतों ने जान भी गंवाई थी 

अब बने है गाँव के हीतेसी 
जब लाखों गाँव उजड़ गए 
लाखों घर हो गए बंजर 
लाखों अपनों से बिछड़ गए 

अब उस सड़क के क्या मायने 
जिस पर चलने को लोग नहीं 
अब ना विरान मकां मे वो हलचल रहीं 
जिनका खुशियो से मिलन का संजोग नहीं 

आज भी शहर की चारदीवारी मे कैद 
बहुत अम्मा बाबा रोते हैं 
अपने गाँव के बाखली को याद करके 
बुढ़ी आंखे खुद को भीगोती हैं 

अब भी वक्त है कर दो जीर्णोद्धार 
कुछ रुके हुए हैं जो गाँव मे 
उस बुढ़े बरगद तक पहुंचा दो पानी 
हमारा बचपन गुजरा है जिसकी छांव मे