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Monday, August 22, 2022

मैं बस नाम की सुहागन...


 

मैं ममता रहित एक बागवां की कली

दर्द के सन्ताप मे पलकर बड़ी हूँ

बचपन मे भी बिल्कुल तन्हा थी

आज भी अकेले खड़ी हूँ


बेरहम वक्त से लड़ पोंछ आंसू को

जिंदगी के हर इम्तिहाँ को पास किया

कितने उतार चढ़ाव आए जीवन मे, लेकिन

ना मैंने खुद को निराश किया


अपने खुशियाँ की परवाह नहीं की 

ना अपने सपनों का ध्यान रखा 

कर दिए हाथ पीले बाबुल ने 

दूजे घर खुद का समान रखा 


अब जिसको सबकुछ मान 

हर रिश्ता पीछे छोड़ आयी थी 

मानों फिर वक़्त रूठ गया था मुझसे 

फिर इम्तिहाँ की घड़ी आयी थी 


मैं जिसको अपना परमेश्वर समझकर 

पूरी श्रद्धा से बलिहारी जा रहीं थीं 

अचानक आज उसके जिस्म से 

किसी और के इत्र की खुशबु आ रहीं थीं 


मैं हैरां परेशाँ हो गई 

किस्मत के आगे हार रहीं थीं 

वो किसी और गुल का मुरीद हो रहा 

जिसके लिए मैं खुद को सँवार रहीं थीं 


पैरों तले जमीन न रहीं 

क्यूँ वक्त ने मुझसे हरजाई की 

मैंने तो सिद्दत से रिश्ता निभाया 

फिर क्यूँ उसने ऐसे बेवफाई की 


उम्र में बड़ी और चरित्र शून्य 

वो किसी और के नाम का जाप जपने लगा 

मुझे वक्त ने ठगा ता-उम्र 

फिर कोई अपना ठगने लगा 


हाय रे किस्मत ये कैसे सितम है 

अब सिंदूर का रंग फीका होने लगा 

जो मेरे लिए सबकुछ था मेरा 

वो आज और किसी का होने लगा 


उस खुदा ने ममता की छांव छीना 

मैं किस्मत समझकर सब सह गई 

अब सिंदूर दगा पे उतर आया है 

मैं सिर्फ नाम की सुहागन रह गई