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Thursday, September 9, 2021

जंग या जिंदगी?

 


हर  युद्ध के बाद

किसी को तो सफाई करनी ही है।

हालत नहीं कर सकते 

आखिर खुद को तो सही करो।

 

किसी को तो ढकेलना ही है 

 मलवा सड़क के किनारों तक,

 तभी तो लाश से भरी गाड़ियाँ

 आगे बढ़ सकती हैं ।


 किसी का पैर तो फंसना ही है 

 कीचड़ और राख में,

 टूटी कुर्सियाँ और खून से लथपथ कपड़े 

 है एक और नए बटवारे के फ़िराक़ मे 


 किसी को तो गढ़ना होगा बुनियाद मे 

 दीवार खड़ी करने के लिए,

 किसी को रोशनदान बनकर,

 शुद्ध हवा को भीतर लाना होगा।


 तत्काल बना यह नहीं है,

 वर्षों से सुलगती आग है ये 

 सारे हथियार फिर से तैयार हैं

 एक और युद्ध के लिए।


हमें फिर से आवश्यकता होगी

एक जुट होकर आगे आने की।

गृह क्लेश से विश्व युद्ध तक रोक कर 

बिखरते शांति को संजोने की।


कैसे, हाथ में छड़ी,

अभी भी याद है कि वह कैसा था।

शांति अहिंसा दो हथियारों से 

क्रूर शासन का तख्त हिलाता था।


आस्तीनों मे 

अभी भी कई साँप पल रहे हैं 

जंग लगे हो कारतूसों मे भले 

जाबांज हौसलों से ही शेषनाग के फन कुचल रहे है।


घास में जो उग आये हैं 

फिर से रक्तरंजित कुछ कोंपले 

किसी को तो बढ़ाना ही होगा

जर जर टूटते हौसले|

                       (हैरी)



Friday, August 27, 2021

अंत नहीं होता....



जब मैं मरूँ, मेरा जनाज़ा निकाला जा रहा हो.. 

 यह न सोचना कि मैं इस दुनिया को याद कर रहा हूँ 

 कोई अश्क न बहाए, शोक न करे , न ही कोई मन भारी करे... 

मैं राक्षस के रसातल में नहीं पड़ रहा हूँ


 जब देखो मेरा  जनाजा जाते हुए, 

  पीड़ासक्त होकर रोना नहीं... 

मैं अलविदा नहीं कह रहा हूंँ, 

मैं तो शाश्वत प्रेम से मिल रहा हूंँ।


मुझे मेरी कब्र में छोड़ आओ, तो अलविदा मत कहना.. 

 याद रखना कब्र तो जन्नत के लिए सिर्फ एक पर्दा महज है

तुमने मुझे केवल पंचतत्व मे विलीन होता देखा, 

अब मुझे पंचतत्व होता भी देखो... 


प्रकृति का अंत कैसे हो सकता है?

 नहीं हो सकता... 

 मरण सूर्यास्त सा है, अंत सा लगता है 

लेकिन वास्तव में यह भोर है.। 

गोधूलि और भोर में सूर्य चंद का अंत नहीं होता... 

दोनों मौजूद रहते हैं कहीं न् कहीं


जब मिट्टी तुम्हें खुद मे मिला लेती है,

तब आत्मा मुक्त हो जाती है।

 क्या आपने कभी किसी बीज को धरती पर गिरे हुए 

नव जीवन के साथ  उगते नहीं देखा है?

फिर मनुष्य  के बीज उगने पर संदेह कैसा ?

 अंत नहीं होता प्रकृति का..... 

                                       (हैरी)

Tuesday, March 16, 2021

मृत्यु तो शाश्वत सत्य है फिर किस बात से तू रहा है

मृत्यु तो शाश्वत सत्य है फिर किस बात से तू रहा है डर
लोभ मोह सब मिथ्या है अछूता नहीं कोई फिर भी मगर

इर्ष्या द्वेष और छल कपट से भरा हुआ है डगर तेरा 
कांधे चार दो गज ज़मीं श्मशान ही अंतिम सफर तेरा 
फिर क्यों खुद को तू अपनों से अलग-थलग रहा है कर 
मृत्यु तो शाश्वत सत्य है फिर किस बात से तू रहा है डर 

नेकी ही संग जाएगी जब कहर काल का बरसेगा 
मुह फ़ेर लिया था जिनसे मिलने को उनसे तरसेगा
भले अलग रहने लगा है खुश तू भी नहीं है पर 
मृत्यु तो शाश्वत सत्य है फिर किस बात से तू रहा है डर 


बन कलाम और गाँधी सा ग़र धर्म की बेड़ी तोड़नी है 
दो दिन की जिंदगी मे ग़र अमिट छाप जो छोड़नी है 
पुण्य कमा जो पहुंचाएंगे तुझको तेरे रब के दर 
मृत्यु तो शाश्वत सत्य है फिर किस बात से तू रहा है डर
                                                    ...... हैरी