मृत्यु तो शाश्वत सत्य है फिर किस बात से तू रहा है डर
लोभ मोह सब मिथ्या है अछूता नहीं कोई फिर भी मगर
इर्ष्या द्वेष और छल कपट से भरा हुआ है डगर तेरा
कांधे चार दो गज ज़मीं श्मशान ही अंतिम सफर तेरा
फिर क्यों खुद को तू अपनों से अलग-थलग रहा है कर
मृत्यु तो शाश्वत सत्य है फिर किस बात से तू रहा है डर
नेकी ही संग जाएगी जब कहर काल का बरसेगा
मुह फ़ेर लिया था जिनसे मिलने को उनसे तरसेगा
भले अलग रहने लगा है खुश तू भी नहीं है पर
मृत्यु तो शाश्वत सत्य है फिर किस बात से तू रहा है डर
बन कलाम और गाँधी सा ग़र धर्म की बेड़ी तोड़नी है
दो दिन की जिंदगी मे ग़र अमिट छाप जो छोड़नी है
पुण्य कमा जो पहुंचाएंगे तुझको तेरे रब के दर
मृत्यु तो शाश्वत सत्य है फिर किस बात से तू रहा है डर