कुछ समेट लूँ पंक्तियों में, अल्फ़ाज़ बिखरने से पहले,
क्या दो-चार दिन जी लूँ मैं भी, यूँ ही मरने से पहले।
मेरी तो रूह तलक काँप जाती है, किसी और को सोच के भी,
क्या उसके कदम नहीं डगमगाए होंगे, दग़ा करने से पहले।
अब किससे कहूँ — इन ज़ख़्मों को रफ़ू कर दे लफ़्ज़ों से,
मैं दर्द की हर इन्तहा देखना चाहता हूँ, हद से गुज़रने से पहले।
अब धीरे-धीरे साँसें भी भरने लगी हैं ज़हर मुझमें,
मैं सब कुछ समेटना चाहता हूँ, फिर से बिखरने से पहले।
तुम यक़ीन करो या ना करो मेरी हाल-ए-दिली दास्तानों पर,
मैं सब कुछ उड़ेलना चाहता हूँ, बेख़ौफ़ भरने से पहले।
एक रोज़ आएगा, तुम भी तड़पोगे किसी अज़ीज़ के लिए,
तब समझोगे, क्या होता है — हज़ार बार मरना, मरने से पहले।
आज मैं हूँ, तो सब कुछ मेरी ही ग़लती लगती होगी तुम्हें,
कभी मेरी हालत देखी थी तुमने — यूँ सँवरने से पहले?
ये बिखरे ख़्वाब, ये गलीच लहजा, सब तेरी इनायत हैं,
मेरा दिल भी पाक-साफ़ था, तेरे दिल में ठहरने से पहले।
अब और लिखूँगा तो कलम भी रो पड़ेगी मेरे हालात पर,
तेरा एक आँसू तक ना गिरा — मेरी ख़ुशियाँ हरने से पहले।
दो-चार दिन और दिखेगी मेरी सूरत तेरे मोहल्ले में,
मैं बस एक बार जी भर के देखना चाहता हूँ — तुझे, बिछड़ने से पहले। 🌙
Friday, November 28, 2025
मरने से पहले...
Saturday, October 2, 2021
मैं फिर मिलूंगा....
हम फिर मिलेंगे कभी....
शायद इस जनम मे तो नहीं
पर मेरा अटल विश्वास है
मैं तेरे दिल मे हमेशा रहूँगा
कहीं किसी सीप मे मोती की तरह
कभी हारिल की लकड़ी सा
अब आँखों से तेरी ओझल हो गया
चाह कर भी कहीं ढूंढ ना पाओगे
पर तुझमे मुझको ढूंढेगी दुनिया
जैसे चांद के संग चौकोर
जैसे इन्द्रधनुष और मोर
किस्से अपने या कुछ और
मैं तेरी यादों से लिपट जाउंगा
पर तुझे भी बहुत याद आऊंगा
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर पलकें तेरी भी जरूर भीगेगी
सैलाब ना सही चंद बूँदों से
तेरी आंख का काजल भी मिटेगा
या फ़िर यादों का फव्वारा
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें बनकर
तेरे बदन से रिसने लगूंगा
और एक ठंडक सी बन कर
तेरे सीने से लगूंगा
मुझे कुछ नहीं पता
पर इतना जरूर जानता हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह लम्हा मेरे साथ चलेगा
यह शरीर खत्म होता है
तो सब कुछ खत्म हो जाता है
पर ये नूरानी रूह के धागे
कायनात तक जोड़े रखते हैं
उन्हीं धागों के सहारे
मैं तुझसे जुड़ा मिलूंगा
बस इस जन्म की नींद से जागते ही
तुझे उस जन्म मे फ़िर मिलूंगा !!
(हैरी)
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मैं कब कहाँ क्या लिख दूँ इस बात से खुद भी बेजार हूँ मैं किसी के लिए बेशकीमती किसी के लिए बेकार हूँ समझ सका जो अब तक मुझको कायल मेरी छवि का...
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मैं मिलावटी रिश्तों का धंधा नहीं करता बेवजह किसी को शर्मिदा नहीं करता मैं भलीभाँति वाकिफ हूँ अपने कर्मों से तभी गंगा मे उतर कर उसे गंदा...



