मलबे के ढेर पर बैठा, वो अपना सब कुछ खोकर,
छिपा लिया है चेहरा हाथों में, शायद जी भर रोकर।
कल तक जो एक हँसता-खेलता घर था,
आज वो बस टूटी लकड़ियों और कीचड़ का मंज़र था।
तिनका-तिनका जोड़कर, उम्र भर जो गृहस्थी सजाई थी,
कुदरत के एक कहर ने, पल भर में सब मिटाई थी।
जिन दीवारों में गूँजती थी कभी अपनों की किलकारी,
वहाँ आज पसरी है बस ख़ामोशी और लाचारी।
मिट्टी में सने वो हाथ, जो कभी मेहनत से ना थकते थे,
आज अपनी ही बर्बादी के टुकड़े समेटने को तरसते थे।
आँखों से बहते आँसू, अब सूखकर पत्थर हो गए,
सपने जो देखे थे कल, वो इस सैलाब में कहीं खो गए।
सामने लगा ‘राहत शिविर’ का बोर्ड उसे चिढ़ाता है,
अपने ही घर का राजा, आज भिखारी नज़र आता है।
यह सिर्फ मकान नहीं टूटा, एक इंसान का हौसला टूटा है,
कुदरत, तेरे खेल ने आज फिर एक गरीब का घर लूटा है।
Friday, December 5, 2025
उजड़ा आशियाना ( प्रकृति की मार)
Thursday, September 25, 2025
बंद कमरों की सिसकियाँ...
चुप्पियों के पीछे पुकारें बहुत हैं।
हर मुस्कुराते चेहरे के पीछे जो छिपा है,
उस दर्द के समंदर के किनारे बहुत हैं।
घर है ये या कोई सज़ा की कोठरी?
यहाँ रिश्तों की बोली को बेगारे बहुत है।
जहाँ हर थप्पड़ के बाद यही सुनाई देता है —
"सिसकियाँ बंद करो वर्ना विकल्प तुम्हारे बहुत है "
कहीं माँ का आँचल जलती सिगरेट से जली,
कहीं डरे सहमे पुरुष बेचारे बहुत हैं ।
जिसको जैसे ढाला समाज ने वैसे ही ढल गए
क्योंकि ढोंगी समाज सुधारक हमारे बहुत हैं
रात की ख़ामोशी में चीख़ गूंजती है,
अब भी खण्डहर मकानों की दीवारें बहुत हैं ।
अंदरुनी बाते हवा से भी तेज फैल जाती है बाजारो मे
प्लास्टर वाले घरों मे भी दरारे बहुत हैं ।
दर्द अब लिपस्टिक के नीचे छुपा रहता है,
मगर आँखों मे बेबसी के नजारे बहुत है।
तहज़ीब सिखाई जाती है बेटियों को ही बस
"खुले सांड से घूम रहे बेटे प्यारे बहुत हैं "
पर रिश्तों की आड़ में ज़ुल्म सह कर
कुछ लोग जिंदगी से हारे बहुत हैं ,
और समाज “मामला व्यक्तिगत” बताकर चुप रहता है
ये मीठा बोलने वाले लोग खारे बहुत हैं
अब वक़्त है इन बंद कमरों की साँकलें तोड़ने का,
हर खामोशी को आवाज़ देने को मीनारें बहुत है
मिलेगा न्याय और अधिकार हर मजलूम को, यहाँ
दृढ़ और सशक्त अब भी दरबारें बहुत हैं ||
Sunday, September 7, 2025
CPR दे रहे हैं....
Thursday, July 24, 2025
बेबस सच....
Thursday, September 9, 2021
जंग या जिंदगी?
हर युद्ध के बाद
किसी को तो सफाई करनी ही है।
हालत नहीं कर सकते
आखिर खुद को तो सही करो।
किसी को तो ढकेलना ही है
मलवा सड़क के किनारों तक,
तभी तो लाश से भरी गाड़ियाँ
आगे बढ़ सकती हैं ।
किसी का पैर तो फंसना ही है
कीचड़ और राख में,
टूटी कुर्सियाँ और खून से लथपथ कपड़े
है एक और नए बटवारे के फ़िराक़ मे
किसी को तो गढ़ना होगा बुनियाद मे
दीवार खड़ी करने के लिए,
किसी को रोशनदान बनकर,
शुद्ध हवा को भीतर लाना होगा।
तत्काल बना यह नहीं है,
वर्षों से सुलगती आग है ये
सारे हथियार फिर से तैयार हैं
एक और युद्ध के लिए।
हमें फिर से आवश्यकता होगी
एक जुट होकर आगे आने की।
गृह क्लेश से विश्व युद्ध तक रोक कर
बिखरते शांति को संजोने की।
कैसे, हाथ में सिर्फ छड़ी,
अभी भी याद है कि वह कैसा था।
शांति अहिंसा दो हथियार से
क्रूर शासन का तख्त हिलाता था।
आस्तीनों मे
अभी भी कई साँप पल रहे हैं
जंग लगे हो कारतूसों मे भले
जाबांज हौसलों से ही कालिया नाग के फन कुचल रहे है।
घास में जो उग आये हैं
फिर से रक्तरंजित कुछ कोंपले
किसी को तो बढ़ाना ही होगा
जर जर टूटते हौसले|
(हैरी)
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मैं कब कहाँ क्या लिख दूँ इस बात से खुद भी बेजार हूँ मैं किसी के लिए बेशकीमती किसी के लिए बेकार हूँ समझ सका जो अब तक मुझको कायल मेरी छवि का...
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मैं मिलावटी रिश्तों का धंधा नहीं करता बेवजह किसी को शर्मिदा नहीं करता मैं भलीभाँति वाकिफ हूँ अपने कर्मों से तभी गंगा मे उतर कर उसे गंदा...






