ऐसा भी नहीं कि हार रहा हूँ मैं,
मगर धीरे-धीरे ज़िंदगी से मन मार रहा हूँ मैं।
बहुत कुछ देख लिया इन चार दिनों की उम्र में,
लगता है पिछले जन्मों का गुनाह उतार रहा हूँ मैं।
कितने ख्वाब, कितनी ख्वाहिशें समेटे था मन,
मगर अब बैरागी बन वक़्त गुज़ार रहा हूँ मैं।
किससे कहूँ — लौटा दे वो पुराने दिन,
जिनके लिए अब रोज़ बचपन को पुकार रहा हूँ मैं।
अब मन से भी चीज़ें बेमन सी हो जाती हैं,
बस पग गिन-गिन कर सफ़र कर पार रहा हूँ मैं।
इतना ऊब गया हूँ अब ज़िंदगी के ऊहापोह से,
शांति की ख़ातिर ख़ुद को न्यौछार रहा हूँ मैं।
बहुत किया प्रयत्न, पर परिणाम हमेशा खिलाफ ही रहा,
समझ नहीं आता कौन-सा कर्ज़ तार रहा हूँ मैं।
कुछ तो मैंने भी झेला होगा बहुत बोझिल मन से,
ऐसे ही नहीं, ज़िंदगी से मन मार रहा हूँ मैं। 🙏
