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Thursday, October 26, 2023

कविता स्पष्ट है बरदोश नहीं है..



कविता स्पष्ट है बरदोश नहीं है

अर्द्ध मूर्छित है मगर बेहोश नहीं है

जो चाहे जिस भाषा शैली में गड़े 

व्यंगात्मक हो सकती है मगर रूपोश नहीं है 


कोई तारीफ लिखे कोई नाकामियाँ 

कोई व्याकुलता कोई संतोष लिखे 

कोई अमन शांति का पैगाम दे  

कोई उबलते जज्बातों का आक्रोश लिखे 


कुछ लिखते हैं अनकहे जज्बातों को 

कुछ अपने व्यंग्य का सैलाब लिखे 

कुछ धरती के मनोरम सौंदर्य का करते वर्णन 

कुछ कटु वर्णो से तेजाब लिखे 


कुछ प्रेम का सुंदर आभास लिखते हैं 

कुछ दबे कुचले लोगों की आवाज लिखे 

कुछ लिखते हैं खामोशी आपातकाल की 

कुछ 1857 की क्रांति का आगाज लिखे 


हर कोई अपने तरीके से तोड़ मरोड़ कर 

नए रचनाओं से नए शब्दों को आयाम देते हैं 

कोई फैलाते है जहर दुनियाँ मे 

कोई हर ओर शांति का पैगाम देते हैं 


बहरे है लोग भले गूंगी सरकार चाहे 

जंग जारी है कवि खामोश नहीं है 

कितनी कर लो अवहेलना विरोध मे 

कविता स्पष्ट है बरदोश नहीं है ||

बरदोश = छुपी हुयी 

रूपोंश = भागा हुआ, 




Friday, July 7, 2023

इन्कार कर रहा हूँ



जीते जी चार कंधों का इंतजार कर रहा हूं

मैं हर दर पे मौत की दुआ हर बार कर रहा हूँ

जो चले गए वो ना लौटेंगे जो पास हैं वो साथ नहीं 

लोग भरोसा करते है लकीरों पे, मैं खुदा की रहमत से भी इंकार कर रहा हूँ 


जो उजड़ गए है इमारत सपनों के 

मैं दिलों जान से उन्हें बेजार कर रहा हूँ 

तुम खुश हो जहां भी हो ये भी सही तो है 

अब मैं ही खुद को तेरी महफिल से दर किनार कर रहा हूँ 


कभी लगता था तुम ही हो सबसे करीब मेरे 

अब खुद के ज़ख्मों को कुरेद के बीमार कर रहा हूँ 

घाव भर तो गए छाले अंदरूनी आज भी हैं मगर 

तेरे आने की आस में अब भी अपना वक्त बेकार कर रहा हूँ 


कभी मुझे मोहब्बत थी ज़िंदगी के हर लम्हे से 

अब खुद ही खुद को डुबाने के लिए तैयार कर रहा हूँ 

अब ना तुम रहे ना वो लम्हे ना दिलों मे जगह अपनी 

इसलिए खुद को तोड़ कर तार तार कर रहा हूँ 


हर टूटे टुकड़े मे अब सिर्फ मेरा आयाम होगा 

ना किसी की दास्तान ना नाम होगा 

अब खुद ही खुद को कोसते रहेंगे जिंदगी भर

ना किसी से उम्मीद ना किसी पे इल्ज़ाम होगा