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Tuesday, May 27, 2025

दुनिया जालिम है....


 

दुनिया ज़ालिम है —
ये कोई शायर की शेख़ी नहीं,
बल्कि रोज़ सुबह की ख़बर है,
जिसे अख़बार भी छापते-छापते थक चुका है।

यहां आँसू ट्रेंड नहीं करते,
दर्द को 'डिज़ाइन' किया जाता है,
और सच्चाई?
वो तो शायद किसी पुरानी किताब के पन्नों में
धूल फाँक रही है।

यहां रिश्ते
व्हाट्सऐप के आख़िरी देखे गए समय जितने सच्चे हैं,
और भरोसा —
पासवर्ड की तरह, हर महीने बदलता रहता है।

बच्चे सपनों में खिलौने नहीं,
रखते हैं नौकरी की चिंता,
और बूढ़े,
यादों की गर्मी में ज़िंदा रहने की कोशिश करते हैं।

दुनिया ज़ालिम है,
क्योंकि यहां सवाल पूछना गुनाह है,
और खामोशी —
इंसान की सबसे क़ीमती पूंजी।

पर फिर भी,
हम हर सुबह उठते हैं,
चेहरे पे उम्मीद का मास्क लगाते हैं,
और चल पड़ते हैं —
इस ज़ालिम दुनिया को थोड़ा बेहतर बनाने की कोशिश में।|


Tuesday, February 18, 2025

फिर श्रृंगार नहीं होता......

 

बिन शब्दों का कभी भी
वाक्य विस्तार नहीं होता
जैसे बिन खेवनहार के
भव सागर पार नहीं होता

ऊँचा कुल या ऊँची पदवी से
बिन रिश्ते व्यापार नहीं होता
गाँठ पड़े हुये रिश्तों में तो
पूर्ण अधिकार नहीं होता

झूठ, फरेब या लालच का
सदैव जय-जयकार नहीं होता
सच कष्टदायी जरूर होता है
मगर परिणाम बेकार नहीं होता

मन दुःखी और तन पीड़ित हो
फिर श्रृंगार नहीं होता
छालिया कितना भी शातिर हो
छल हर बार नहीं होता

पहली साजिश से सबक
अंतिम प्रहार नहीं होता
मात मिली हो जिस रिश्ते से
फिर उस रिश्ते को मन तैयार नहीं होता

कवि की कपोल कल्पनाओं में
पूर्ण सच्चाई का आधार नहीं होता
हर बात लिखी हो जो कोरे कागज पे
वैसा ही संसार नहीं होता ||


Wednesday, February 21, 2024

पर चूहे से भी डरती है..


 हवा से दोस्ती है उसकी

कलियों से बातेँ करती है

शेरनी सी छवि रखती है वो

पर, चूहे से भी डरती है


वाचाल है सबकुछ उगल देती

बातों को मन मे न रख पाती है

खुद ही खुद की खिल्ली उड़ाती

और जी भरकर हंस भी जाती है


अभी तो दुनियां देखी ही है

तजुर्बा फिर भी तमाम है

परिपूर्ण के करीब है अपने कार्यो मे

फिर भी बातों से लगती नादां है


जुड़ रहा उसकी जिंदगी मे

एक नया अध्याय है

वो परेशानी मे भी हँसा देती सबको

वो खुशियों की पर्याय है


खुशियाँ मिले तमाम उसको

घर परिवार मे भी खुशहाली हो

सपने उसके हो सब पूरे

वो परिवार की अंशुमाली हो ||