Friday, October 25, 2024

यूँ मर जाना ना होता...

 

कल की बची कुछ उधार सांसे

आज हिसाब मांग रहीं हैं

मजबूरियों की फटी चादर से

परेशानियां झरोखों से झाँक रही हैं


कल के गुज़रे दिन सुहाने

आज जी का जंजाल बन रहीं हैं

कष्ट भरे इस अनचाहे सफर मे

दुखों से जिंदगी की ठन रही है


नाकामयाबी का सैलाब उठता हर रोज

मुश्किलों की आँधी उड़ा ले जाती खुशियों को

चंद बूँदों के लिए तरसती रेगिस्तान सी जिंदगी

फिर क्यूँ पहाड़ सी उम्र दे दी मनुष्यों को


भला होता चार लम्हा जीते मगर सुकून से

इन ग़मों के तूफान से टकराना ना होता

महलों के बजाय रहते बीहड़ो मे ही मगर

अनगिनत आशाओं के तले दबकर मर जाना ना होता ||



17 comments:

  1. The way you use language to evoke emotion is truly captivating, 🙏

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  2. कल की बची कुछ उधार सांसे
    आज हिसाब मांग रहीं हैं
    मजबूरियों की फटी चादर से
    परेशानयाँ झरोखों से झाँक रही हैं

    बहुत ही मार्मिक और हृदयस्पर्शी रचना। शब्दों का चयन बहुत ही खूबसूरत है।
    😍😍

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  3. Bhot khubsurat likha hai bhaiya🥰🤗

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  4. बहुत बढ़िया।

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  5. बहुत सुन्दर

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  6. सुख और दुख के ताने-बाने से बुना है जीवन !

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