कल की बची कुछ उधार सांसे
आज हिसाब मांग रहीं हैं
मजबूरियों की फटी चादर से
परेशानियां झरोखों से झाँक रही हैं
कल के गुज़रे दिन सुहाने
आज जी का जंजाल बन रहीं हैं
कष्ट भरे इस अनचाहे सफर मे
दुखों से जिंदगी की ठन रही है
नाकामयाबी का सैलाब उठता हर रोज
मुश्किलों की आँधी उड़ा ले जाती खुशियों को
चंद बूँदों के लिए तरसती रेगिस्तान सी जिंदगी
फिर क्यूँ पहाड़ सी उम्र दे दी मनुष्यों को
भला होता चार लम्हा जीते मगर सुकून से
इन ग़मों के तूफान से टकराना ना होता
महलों के बजाय रहते बीहड़ो मे ही मगर
अनगिनत आशाओं के तले दबकर मर जाना ना होता ||
The way you use language to evoke emotion is truly captivating, 🙏
ReplyDeleteThank you so much 🙏
Deleteकल की बची कुछ उधार सांसे
ReplyDeleteआज हिसाब मांग रहीं हैं
मजबूरियों की फटी चादर से
परेशानयाँ झरोखों से झाँक रही हैं
बहुत ही मार्मिक और हृदयस्पर्शी रचना। शब्दों का चयन बहुत ही खूबसूरत है।
😍😍
बहुत बहुत आभार 🙏
DeleteAbsolutely amazing writing...
ReplyDeleteThank you
DeleteBhot khubsurat likha hai bhaiya🥰🤗
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार 😍
DeleteThank you so much sir for correction 🙏
ReplyDeleteवाह! बहुत खूब!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यावाद
Deleteबहुत बहुत आभार
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
Deleteसुख और दुख के ताने-बाने से बुना है जीवन !
ReplyDeleteसही कहा आपने mam 🙏
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