बोलो सरकारें क्यों सोई हैं ?
जनता की पीड़ा समझा कब कोई है?
हर कोना जलता है चुपचाप,
सच को सुनता भी अब कहा कोई है।
शहरों में सांसें बिकती हैं,
गांवों की आंखें फिकती हैं।
भूखा किसान मर जाए चुप,
नेताओं की चालें टिकती हैं।
दंगों में बँटती इंसानियत,
जातों में सड़ती पहचानियत।
बेटी की चूड़ी टूटी जब,
मौन रही फिर भी प्रशासनियत।
पेड़ों को काटो, फिर रोओ,
पसीने से अब तुम खुद को धोओ ?
धरती भी अब चीख रही है,
फिर भी सब मौन धरो और, सोओ।
डिग्रियाँ लिए युवक बैठे,
ख्वाबों के जले पंख सड़ते हैं।
सिस्टम का हर दरवाज़ा बंद,
फिर भी सपनों के ताबूत गढ़ते हैं।
कोचिंग के नाम पे लूट है,
ज्ञान बेचने का मानो कारोबार है
फिर भी उम्मीदों की लौ है जलाये,
ना जाने क्यूँ हर एक बेरोज़गार है?
कुछ तो जनहित मे अब काम करो,
यूँ नौजवां के भविष्य से खेलना ठीक नहीं,
हर साल बस वादों का झांसा न दो।
हक़ मानते हैं हम, कोई भीख नहीं।|
दंगों में बँटती इंसानियत,
ReplyDeleteजातों में सड़ती पहचानियत।
बेटी की चूड़ी टूटी जब,
मौन रही फिर भी प्रशासनियत।
. khubsurat pangtiya...
शुक्रिया
DeleteBahut he sundar 👍
ReplyDeleteThank you
Delete💯💯💯💯
ReplyDelete✌️✌️✌️✌️✌️👍
DeleteRight Bhaiya ❤️🥰
ReplyDeleteYo bro 😍
DeleteSuperb ❤️❤️
ReplyDeleteThank you
Deleteआपने सही कहा है ... हक़ मानते हैं सब ... पर समाज में चेतना जरूरी इन इन सब के लिए ...
ReplyDeleteजी महोदय
Deleteसही कहा भाई, ये कविता बिल्कुल दिल से निकली लगती है। हर लाइन जैसे हमारे आस-पास की सच्चाई दिखा रही है। किसान की भूख, बच्चों की बेरोज़गारी, बेटी की सुरक्षा, सब कुछ साफ और सटीक ढंग से लिखा है। पढ़ते-पढ़ते लगा जैसे अपनी ही कहानी है। सच में, सरकारें बस वादे करती हैं, लेकिन ज़मीन पर कुछ दिखता नहीं। और सबसे दर्दनाक बात ये है कि हम अब आदत डाल चुके हैं चुप रहने की।
ReplyDeleteआपकी इस प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार
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