जाति धर्म समुदाय के नाम पे कट रहे हैं लोग
इन्सानियत और अपनेपन को भुला चुके हैं
धीरे-धीरे परिवार मे तभी घट रहे हैं लोग
भाई-भाई से निभा दुश्मनी रहे यहाँ हैं लोग
पड़ोसी का जो हाल पूछते अब कहाँ हैं लोग
अब मैं भी फिरता रहता हूं खोजने को एक दुनियाँ
इन्सानियत को सबसे ऊपर समझते जहाँ हो लोग
मुँह मे राम बगल मे छुरा करते हैं सब लोग
अपनों की उन्नति देख जल मरते हैं अब लोग
उस कुंए को भी प्यासा छोड़ देती है ये दुनियाँ
शीतल जल उसका अपने गागर मे भरते हैं जब लोग
अपनों की ख़बर नहीं पर गैरों को मनाते हैं लोग
रावण के हैं भक्त बने और राम को जलाते हैं लोग
जिनके आदर्शों से चलती आ रहीं है दुनियाँ
धीरे-धीरे उन्हीं की साख को मिट्टी मे मिलाते हैं लोग
बेच बाप की जमीन नया कारोबार लगा रहे हैं लोग
बुढ़ी माँ बीमार है मगर पैसा उधार लगा रहे हैं लोग
कितने कमजोर हो गए रिश्ते दुनियां मे
अपनों के डर से गैरों को चौकीदार बना रहे हैं लोग
युधिष्ठिर को भुलाकर दुर्योधन बनने लगे हैं लोग
भ्रष्टाचार और नफरत के कीचड़ मे सनने लगे हैं लोग
अब धर्म की नीति नहीं बल्कि नीति के लिए धर्म को
तोड़ मरोड़ कर जनता पे मड़ने लगे हैं कुछ लोग
सुन्दर
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार sir 🙏
DeleteThanks
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार
(30-11-21) को नदी का मौन, आदमियत की मृत्यु है" ( चर्चा अंक4264)पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
आपका बहुत आभार mam
DeleteNice
ReplyDeleteThank you so much
Deleteदुनिया तो सदा से ऐसी ही रहती आयी है, ऐसे में ही हम सभी को ज्ञान का दीपक जलाते रहना है
ReplyDeleteसही कहा आपने...
Deleteआज केयथार्थ को परिभाषित करता बहुत सुंदर तथा सराहनीय सृजन ।
ReplyDeleteआपका बहुत आभार mam
Deleteकरनी और कथनी का लाज़वाब शब्द चित्रण।
ReplyDeleteसादर
बहुत-बहुत आभार 🙏
DeleteSundar rachna
ReplyDeleteशुक्रिया
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