क्यों अपना ही घर हमें, छोड़कर भागना पड़ा
हुक्मरान थे नींद में, हमें जागना पड़ा
पुस्तैनी जमीन छोड़ी, सपनों का मकां गया
किलकारियों भरा आंगन, किसे पूछूँ कहांँ गया
क्या कसूर था हमारा, क्यों जो बेदखल किया
बेबस बेकसूरों का, किस जुर्म में कतल किया
रो रहीं बहू बेटियाँ, बुजुर्ग सब हताश थे
न पनाह अपनत्व की, अपने भी लाश लाश थे
कैसे बचाई जान हमने, रात के अंधेरों में
चीखती कराहें कह रही, कश्मीर के गधेरों में
सत् सनातन के राही, करते थे शिव का ध्यान सदा
नि:शस्त्र शास्त्र का हनन हुआ, इस बात का सबको पता
फिर भी सभी खामोश हैं, ना हलचल कोई सदन में है
शरणागत के भांति फिरते, अब तलक हम वतन में हैं
हक हमें भी अपना चाहिए, जमीं अपनी कश्मीर में
बहुत सह लिए ज़ख़्म, बेवजह आए मेरे तकदीर में
अब कोई तो निर्णय करो, फैसले जो हक मे हो
मुस्कान सिर्फ चेहरे पे नहीं, खुशी हर रग रग मे हो
फिर से वही घर चाहिए, और वहीं बसेरा हो
अब नफरतों की शाम ढ़ले, अमन का सवेरा हो