"कविता कोई पेशा नहीं है, यह जीवन का एक तरीका है। यह एक खाली टोकरी है; आप इसमें अपना जीवन लगाते हैं और उसमें से कुछ बनाते हैं।"
Friday, March 4, 2022
पढ़ा लिखा बेरोजगार...
Tuesday, February 22, 2022
आदमी क्या है...?
जलता अंगारा...?
जो आसूं नहीं बहा सकता
मगर जल सकता है राख होने तक
बिना ये कहे कि तकलीफ में हूं।
आदमी क्या है
जिनी चिराग...?
जिसका कोई निज स्वार्थ नहीं
मगर आजीवन घिसता रहता है
सिर्फ अपनों की खुशियों के खातिर
आदमी क्या है
जांबाज सिपाही...?
कायरता पे जिसका अधिकार नहीं
हर हाल मे उसको लड़ना है
कभी अपनों से कभी हालातों से
आदमी क्या है
संयोजक कड़ी...?
उतार चड़ाव भरी इस जिंदगी मे
सब कुछ जोड़ के चलता है
दो जून की रोटी के खातिर
आदमी क्या है
टिमटिमाता जुगनू...?
प्रकाश और अन्धकार के बीच
उम्मीद की एक किरण जैसा
जो सबको हौसला देता है
आदमी क्या है
बनावटी साँचा...?
जो अपने गुस्से या प्रेम को
बिना जाहिर किए हुए
हर उम्मीद पे खरा उतरे
आदमी क्या है
मूक दर्शक...?
जो आवाज उठाना तो चाहता हो
मगर अपनों को दलदल मे फंसता देख
मौन धारण कर लेता है
आदमी क्या है
टूटी पगडंडी...?
जिसका जर्रा जर्रा बिखर गया
रिश्ते निभाते निभाते
मगर लौटकर कोई आया नहीं
आदमी क्या है
ढलती शाम...?
जिसने उगते सूरज का तेज भी देखा है
भोर की लालिमा मे नहाया है
मगर अब अंधेरे से मिलने को है
Friday, February 18, 2022
लहू के दो रंग
दिखते है मुझे इंसान मे
अब भी साजिश में शामिल गोडसे,
कुछ अब भी शामिल गाँधी की हिंसा मे
कुछ के ईश्वर हैं बापू,
कुछ गोडसे को सलामी देते हैं
ये मिली जुली सी फितरत लोगों की,
दोनों को बदनामी देते हैं
ना गांधी ने कोई अनर्थ किया था,
ना गोडसे ने कद्दू मे तीर चलाया था
एक था अपनों के विश्वासघात का मारा,
एक को अपनों ने बरगलाया था
एक नाम विश्व पटल पे था
एक का अपना ही संसार था
एक हिन्दू मुस्लिम मे भेद समझता,
एक का पूरा अपना परिवार था
अब कौन सही था कौन गलत
कोई कहता हिन्दू मुस्लिम हैं दुश्मन
कोई कहता भाई भाई हैं
गांधी ने मझधार मे छोड़कर
देश का बंटवारा होने दिया
गोडसे की गोली ने धधकती ज्वाला को
सुषुप्त अवस्था मे ही सोने दिया
अब किसके पक्ष मे खड़ा रहूं मैं
किसके खिलाफ कहूँ जंग है
अंतरात्मा तभी है कहती मेरी
अब भी लहू के दो रंग हैं
Friday, February 4, 2022
अब तो अनुकंपा कर दो भगवान...
अब तो अनुकंपा कर दो भगवान
मन को कर दो स्थिर
मस्तिष्क मे भर दो ज्ञान
हार चुका हूँ हालातों से
पाना चाहा है सम्मान
अब तो अनुकंपा कर दो भगवान..
सोचा था कुछ कर पाऊँगा
जीवन खुशियों से भर पाऊँगा
स्मरण प्रतिक्षण तेरा मन मे
किया तेरा ही गुणगान
दे ज्ञानपुंज मिटा अज्ञान
अब तो अनुकंपा कर दो भगवान...
उठ न जाय विश्वास तुझसे
खत्म न हो आस्था है मेरी
जग को सुनाओ तो हंसता है मुझे पे
अब तू भी न सुनेगा क्या व्यथा मेरी
चंद खुशी के पल दो वरदान
अब तो अनुकंपा कर दो भगवान...
पथ प्रदर्शक है जग का तू तो
रहा फिर क्यूँ मुझसे अंजान
शरण मे अपनी मुझको भी ले लो
शांत कर मेरे मन का तूफान
अब तो अनुकंपा कर दो भगवान
अब तो अनुकंपा कर दो भगवान |
Tuesday, January 25, 2022
अमर रहे हिंदी हमारी....
देवनागरी लिपि से लिपिबद्ध, भाषा सबको सिखाती हिन्दी
बहुत सरल बहुत भावपूर्ण है, ना अलग कथन और करनी है
जग की वैज्ञानिक भाषा है जो, संस्कृत इसकी जननी है
बहुत व्यापक व्याकरण है इसका, सुसज्जित शब्दों के सार से
एक एक महाकाव्य सुशोभित है जिसका, रस छंद अलंकार से
ऐसी गरिमामय भाषा अपनी, निज राष्ट्र मे अस्तित्व खो रहीं
वर्षों जिसका इतिहास पुराना, अपनों मे ही विकल्प हो रहीं
अनेक बोलियां अनेक लहजे मे, बोली जाती है हिन्दी
चाहे कबीर की सधुक्खडी हो, या तुलसी की हो अवधी
सब मे खुद को ढाल कर, खुद का तेज न खोए हिन्दी
पाश्चात्य भाषाओं के अतिक्रमण से, मन ही मन मे रोए हिन्दी
अपनों के ठुकराने का, टीस भी सह जाती है हिन्दी
वशीभूत आंग्ल भाषियों के मध्य, ठुकराई सी रह जाती हिन्दी
देख अपनों का सौतेलापन, 'मीरा' 'निराला' को खोजे हिन्दी
कहीं हफ्तों उपवास मे है, तो कहीं कहीं रोज़े मे हिन्दी
देख हिन्दी भाषा की ऐसी हालत, मन कुंठित हो जाता है
अपनों ने प्रताड़ित हो किया, फिर कहाँ कोई यश पाता है
संविधान ने भी दिया नहीं, जिसे राष्ट्र भाषा का है स्थान
फिर भी अमर रहे हिंदी हमारी, और हमारा हिन्दुस्तान
Friday, January 14, 2022
कविता है अखबार नहीं
मैं कवि नहीं एक शिल्पी हूं
अक्षर अक्षर गड़कर, एक आकर बनाता हूं
पाषाण हृदयों को भी पिघला दे, ऐसी अद्भुत रचना से
अपनी कविता को साकार बनाता हूँ
रस छंद अलंकार और दोहा सौरठा से
होकर परे एक मुक्तक, शब्दों का संसार बनाता हूं
दबे कुचले हो या भूले बिसरे, गड़े मुर्दों को उखाड़ कर
अपनी लेखनी का आधार बनाता हूँ
कलम नहीं रुकती मेरी, ना हाथ कांपते हैं
जब जब दुशासन के चरित्र, मेरे शब्द नापते हैं
ना दहशत खोखली धमकी की, ना डर को भांपते है
ना मीठे बोल लुभाते, ना किसी दुशासन का नाम जापते है
सदा सत्य लिखने को, कलम आतुर रहती है
अडिग विचारों को लिये, कोरे कागज पे स्याही बहती है
ना अधर्म का पक्ष लेती, ना मूक दर्शक बनी रहती
बिना अंजाम की परवाह किए, सिर्फ सच ही कहती है
देख हौसला कलम का, एक जोश नया आता है
लिखता हूँ कडवा सच, शायद कम को तब भाता है
कायरता मे लुफ्त बोल, हमसे ना लिखे जाएंगे
जब जब कलम उठेगी, हम सच ही लिख पाएंगे
कलम तुलसी की ताकत है, भाड़े की तलवार नहीं
कलम आलोचना झेलती है, प्रबल प्रशंसा की हकदार नहीं
सत्य लिखने पे उठे अंगुलियाँ, हमको कोई गुबार नहीं
मीठे बोलो से भर दे पन्ने, कविता है अखबार नहीं
Sunday, January 9, 2022
डंका बज गया चुनाव का
मुझे उसके लफ़्ज़ों मे, चापलूसी की बू आ रहीं है
बड़ा शोर मचा है लगता है, चुनाव तू आ रहीं है
कल तक जो राजा थे, अब खुद को सेवक दिखा रहे हैं
भ्रमित करके जनमानस को, जाल नया बिछा रहे हैं
जो मुड़कर नहीं आए सालों मे, वो रोज पधार रहे हैं
आलीशान महलों के मालिक, झुग्गियों मे दिन गुजार रहे हैं
जिसने जनता की आशा तोड़ी, पलट कभी देखा नहीं
जनता जनार्दन होती है जान, अब आस से निहार रहे हैं
शोर सराबोर चारो तरफ, अपना प्रचार कर रहे हैं
बहला फुसला कर जनता को, फिर व्यापार कर रहे हैं
दे दो सत्ता आज हमे, कल होगा विकास
डिजिटल नगदी के युग मे, सौदा उधार कर रहे हैं
अब कलम के सहारे, जनता को जगाना होगा
एक एक "मत" की कीमत, इनको समझाना होगा
ये बरसाती मेढ़क है, सिर्फ बरसात मे ही आयेंगे
अगर है हितैषी जनता के, हर मौसम आना होगा
जो सुख दुःख मे साथ रहे, वही जननायक होगा
वोट उसी को करेंगे अब, जो नेता के लायक होगा
जो सिर्फ अपना उल्लू सीधा करे, उसकी जरूरत नहीं
संसद मे वही पहुंचेगा, जो बुरे वक्त मे भी सहायक होगा
जो राग द्वेष से हो परे, न सत्ता लालच मन मे हो
जिसका जाति धर्म से बढ़कर, राष्ट्र प्रेम जीवन मे हो
जो ना बांटे दुनियां को, जाति-धर्म की राजनीति से
एक देश एक है हम, जिसके हर कथन मे हो
जागो जनता बेच ना आना, फिर से अपने वोट को
काबिल को चुनकर आना, न देखना फेंके नोट को
लालच की माला पहन, उतर न जाना बोतल मे
करके ख्वाब का सौदा, बिक न आना चुनावी दंगल मे
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मैं कब कहाँ क्या लिख दूँ इस बात से खुद भी बेजार हूँ मैं किसी के लिए बेशकीमती किसी के लिए बेकार हूँ समझ सका जो अब तक मुझको कायल मेरी छवि का...
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कविता स्पष्ट है बरदोश नहीं है अर्द्ध मूर्छित है मगर बेहोश नहीं है जो चाहे जिस भाषा शैली में गड़े व्यंगात्मक हो सकती है मगर रूपोश नहीं है क...