अर्द्ध मूर्छित है मगर बेहोश नहीं है
जो चाहे जिस भाषा शैली में गड़े
व्यंगात्मक हो सकती है मगर रूपोश नहीं है
कोई तारीफ लिखे कोई नाकामियाँ
कोई व्याकुलता कोई संतोष लिखे
कोई अमन शांति का पैगाम दे
कोई उबलते जज्बातों का आक्रोश लिखे
कुछ लिखते हैं अनकहे जज्बातों को
कुछ अपने व्यंग्य का सैलाब लिखे
कुछ धरती के मनोरम सौंदर्य का करते वर्णन
कुछ कटु वर्णो से तेजाब लिखे
कुछ प्रेम का सुंदर आभास लिखते हैं
कुछ दबे कुचले लोगों की आवाज लिखे
कुछ लिखते हैं खामोशी आपातकाल की
कुछ 1857 की क्रांति का आगाज लिखे
हर कोई अपने तरीके से तोड़ मरोड़ कर
नए रचनाओं से नए शब्दों को आयाम देते हैं
कोई फैलाते है जहर दुनियाँ मे
कोई हर ओर शांति का पैगाम देते हैं
बहरे है लोग भले गूंगी सरकार चाहे
जंग जारी है कवि खामोश नहीं है
कितनी कर लो अवहेलना विरोध मे
कविता स्पष्ट है बरदोश नहीं है ||
बरदोश = छुपी हुयी
रूपोंश = भागा हुआ,
🥰🥰🥰🥰🥰🥰🥰🥰
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteबेहतरीन अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २७ अक्टूबर२०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार गुरुजी 🙏
Deleteबहुत खूब....
ReplyDeleteसही कहा सबके मन की उमड़ घुमड़ से बनी है कविता
बहुत सुन्दर।
बहुत-बहुत आभार
Deleteबहुत जरूरी है कविता का स्पष्ट होना ... प्रभावी रचना ...
ReplyDeleteबहुत-बहुत शुक्रिया
Deleteवाह।
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteकविता स्पष्ट है बरदोश नहीं है ||
ReplyDeleteवाह !! अति सुन्दर सृजन ।
बहुत-बहुत आभार
Deleteबहुत सुंदर सृजन।
ReplyDeleteशुक्रिया 🙏
Deleteक्या बात है! बहुत सुंदर 🙏
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार महोदय
Deleteअभिनव
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सृजन
ReplyDeleteजिस दिन कविता ख़ामोश हो गई जीवन भी नहीं रहेगा
ReplyDeleteSahi farmaya aapne mam😊
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