Sunday, September 8, 2024

डर लगता है घर जाने पर


 मैं खुद को नाप नहीं पाया

सफलता के पैमाने पर

सदैव बना रहा फिर भी

अपनों के निशाने पर


न कष्ट किसी को दिया कभी

ना रात गुजारी मैखाने पर

ना छीना निवाला किसी मजलूम का

फिर क्यूँ न उम्र गुज़री ठिकाने पर


छिनता चला गया हर शख्स मुझसे

रूह तक मर चुकी अब उनके जाने पर

मैंने हर रिश्ता निभाया पाक साफ नियत से

फिर क्यूँ हर कोई आया आजमाने पर


कर्म और भाग्य भी विरोधी बने

नींद भी बैठी रहीं सिरहाने पर

देव दृष्टि से भी रहे वंचित सदा

वक़्त भी आमदा रहा सितम ढाने पर


सबकुछ था पर लगता है अब कुछ भी नहीं

मन व्याकुल होता है जश्न मनाने पर

एक दौर था हम भी खुश रहते थे बहुत

अब डर लगता है घर जाने पर ||



20 comments:

  1. Replies
    1. बहुत बहुत आभार गुरुजी 🙏

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  2. यही है संसार का सत्य 😌

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  3. बहुत सुंदर लिखा हैं ☺️🥰

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  4. Bahut hu sundar kavita hai👌👌👌👌👌

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  5. समय और और परिस्थितियाँ सदैव बदलती रहती हैं जिसका प्रत्यक्ष और.अप्रत्यक्ष प्रभाव मानव मन पर अपना प्रभाव छोड़ जाता है।
    सभी के जीवन में ऐसा दौर एक बार जरूर महसूस होता है।
    सादर।
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    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार १० सितम्बर २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।


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    1. बहुत बहुत आभार महोदया मेरी रचना को शामिल करने के लिए 🙏

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  6. लेखन शैली में बहुत नुकीली अभियक्ति है सर ! भगवान का दिया हुआ हुनर है , मेरा पूरा विश्वास है की ये दौर जाएगा और अपना टाइम आएगा! तब तक भड़ास ऐसे ही निकालते रहिए! ये भी परम आवश्यक है :)
    जारी रखिए....

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  7. बहुत खूब, हर कोई ऐसी ही मनोस्थिति से गुजर रहा है

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  8. उदासीनता की सुंदर अभिव्यक्ति।

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