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Sunday, October 5, 2025

इकरार के आगे.....

 



दुनिया में बहुत कुछ है प्यार के आगे
सिर्फ मौत ही हल नहीं इंकार के आगे

पलकों पे सजाए रखें हैं तस्वीर तेरी लोग
लेकिन धुँधला पड़ जाता है दीदार के आगे

तेरी महफ़िल में बैठे ही जाँ देकर उठे
हम बचे कैसे रहते तेरे असरार के आगे

ग़म की सौग़ात लिए घूमे हैं सहरा-सहरा
दिल नहीं टिकता किसी भी गुलज़ार के आगे

तेरी आँखों का जादू है कि जंजीर का बोझ
क़ैद हो जाता है इंसाँ भी पहरेदार के आगे

जिस्म चाहे थक गया हो सफ़र की मुश्किल से
रूह रुक नहीं सकती अब मझधार के आगे

शबनमी ख्वाब सजे हैं तेरी पलकों के तले
चाँद भी सर झुकाता है रुख़सार के आगे

ख़ौफ़-ए-तन्हाई से डरता नहीं "हैरी" अब तो
रब की रहमत ही काफ़ी है ग़मगार के आगे

अब "स्याही" भी खामोश नहीं रह सकती दोस्त,
लफ़्ज़ सिर झुका देते हैं इकरार के आगे।





Thursday, September 25, 2025

बंद कमरों की सिसकियाँ...


 दीवारें चुप हैं, पर उनमें दरारें बहुत हैं,

चुप्पियों के पीछे पुकारें बहुत हैं।

हर मुस्कुराते चेहरे के पीछे जो छिपा है,

उस दर्द के समंदर के किनारे बहुत हैं।


घर है ये या कोई सज़ा की कोठरी?

यहाँ रिश्तों की बोली को बेगारे बहुत है।

जहाँ हर थप्पड़ के बाद यही सुनाई देता है —

"सिसकियाँ बंद करो वर्ना विकल्प तुम्हारे बहुत है "


कहीं माँ का आँचल जलती सिगरेट से जली,

कहीं डरे सहमे पुरुष बेचारे बहुत हैं ।

जिसको जैसे ढाला समाज ने वैसे ही ढल गए

क्योंकि ढोंगी समाज सुधारक हमारे बहुत हैं 


रात की ख़ामोशी में चीख़ गूंजती है,

अब भी खण्डहर मकानों की दीवारें बहुत हैं ।

अंदरुनी बाते हवा से भी तेज फैल जाती है बाजारो मे 

प्लास्टर वाले घरों मे भी दरारे बहुत हैं ।


दर्द अब लिपस्टिक के नीचे छुपा रहता है,

मगर आँखों मे बेबसी के नजारे बहुत है।

तहज़ीब सिखाई जाती है बेटियों को ही बस 

"खुले सांड से घूम रहे बेटे प्यारे बहुत हैं "


पर रिश्तों की आड़ में ज़ुल्म सह कर 

कुछ लोग जिंदगी से हारे बहुत हैं ,

और समाज “मामला व्यक्तिगत” बताकर चुप रहता है 

ये मीठा बोलने वाले लोग खारे बहुत हैं 


अब वक़्त है इन बंद कमरों की साँकलें तोड़ने का,

हर खामोशी को आवाज़ देने को मीनारें बहुत है 

मिलेगा न्याय और अधिकार हर मजलूम को, यहाँ 

दृढ़ और सशक्त अब भी दरबारें बहुत हैं ||



Tuesday, September 16, 2025

“एक राष्ट्र, अनगिनत राग”


 हिमालय की गोद में बसा कश्मीर,

बर्फ़ की चादर में डल झील की तासीर।

हिमाचल की घाटियों में देवता उतरते हैं,

उत्तराखंड की नदियों में खुद शिव जल भरते हैं।


पंजाब की सरसों गाती है वीरों का गान,

हरियाणा की मिट्टी है मेहनत की शान।

गंगा-यमुना का मिलन से बनाता यू. पी. महान,

बिहार के गया व नालंदा ने दिया विश्व को ज्ञान।


लाल क़िले से गूँजती है स्वतंत्रता की शपथ,

क़ुतुब से संसद तक गढ़ा है लोकतंत्र का पथ ।

गंगा-जमुनी तहज़ीब की पनाह मे सबका एक मत,

दिल्ली है दिल, जहाँ से धड़कता है पूरा भारत।


झारखंड के जंगलों में ढोल की थाप,

छत्तीसगढ़ की धरती पर जनजातियों का आलाप।

ओडिशा की रथयात्रा खींचती है श्रद्धा की डोर,

बंगाल की हवा में अब भी साहित्य का शोर।


सिक्किम के फूलों से खुसबू हर पल,

अरुणाचल है भारत का सूर्योदय स्थल।

आसाम की चाय से महकती हर टपरी,

मेघालय के बादलों में दिखती है बेफिक्री।


नगालैंड के पर्व और रंग बिरंगे परिधान 

मणिपुर का नृत्य और खेल भारत के शान।

मिज़ोरम की पहाड़ियों से झरनों का गीत,

त्रिपुरा की गलियों में इतिहास का मीत।


गुजरात का गरबा और गिर के शेर 

राजस्थान मे ही है "भारत का मक्का" अजमेर ।

महाराष्ट्र की धड़कन है छत्रपती शिवाजी महान,

गोवा 'स्वतंत्रता-संग्राम' की अंतिम जीत की पहचान |


कर्नाटक की वीणा में गूंजते है प्राचीन राग,

केरल की नावों संग बहता शीतल बैराग।

तमिलनाडु में प्राचीन मंदिर और दक्खिन का पठार

आंध्र-तेलंगाना में प्रसिद्ध बालाजी और चारमीनार।


अंडमान-निकोबार दिखलाती स्वतंत्रता का समर्पण,

लक्षद्वीप के नीले पानी में झलकता है ईश्वर का दर्पण।

'लौहपुरुष' ने सब रियासतों को मिलाकर किया कार्य नेक 

"अब राज्य तमाम है, मगर भारत सबकी आत्मा एक"



Sunday, September 7, 2025

CPR दे रहे हैं....

 

वो जो कहते थे सांसे थम जायेंगी तुमसे बिछड़ कर
सुना है किसी और को CPR दे रहे हैं

तुम हो तुम थे और तुम्हीं रहोगे कहने वाले
किसी और को प्यार बेशुमार दे रहे हैं

किस हद तक देखना पड़ेगा दुनियां का ये दोगलापन
बेवफा लोग आजकल वफा पे ज्ञान यार दे रहे हैं

हमसे हर बात पर तकरार करने वाले,
अब खुलेआम लोगों को उधार दे रहे हैं


बंद कमरे मे एकांत वास हो जाते थे जो घंटों तक
हमसे दूरी क्या बड़ी सबको समय बार बार दे रहे हैं

चेहरे पे नकाब है या नक़ाब मे चेहरा
लगता है ऐसे लोगों को तवज्जो हम भी बेकार दे रहे हैं

Sunday, August 31, 2025

सर्वधर्म समभाव...

 


नसों में बहते लहू से क्या पहचान पाओगे धर्म को,
सबसे ऊपर रखना चाहिए इंसान को अपने कर्म को।

मंदिर में जो दीप जले, मस्जिद में हो जो अज़ान,
गुरुद्वारे की अरदास गूंजे, चर्च में उठे स्तुतिगान।

सभी इबादत एक सी हैं, सबका है बस मर्म यही,
इंसान की सेवा से बढ़कर कुछ भी है धर्म नही।

हवा सभी को मिलती है, जल सबको देता जीवन,
सूरज की किरणें पूछतीं नहीं, किस मज़हब का है तन।

दीवारों के साए में क्यों, नफ़रत के बीज उगाते हो?
इंसान हो जब पैदा होते, फिर क्यों धर्म बतलाते हो?

राहें चारों चाहे अलग हों, मंज़िल मगर एक है,
प्रेम, करुणा, भाईचारा— यही तो चाहता हरएक है।

तोड़ो नफ़रत की बेड़ियाँ, खोलो इंसानियत के द्वार,
धर्म वही जो जोड़ सके सब, बांटे केवल प्यार।|


Monday, August 25, 2025

अँधेरे के सौदागर



ऐ मुन्शी, जाकर कह दो ठेकेदार से,

क्यों सघन अंधेरा छाया है बस्ती में?

क्यों लोग आतुर हैं, खाने को अपनों को ही,

क्या सच में बदल गई है दुनिया नरभक्षी में?


उसी के हिस्से आया था ठेका शायद —

हर कोना शहर का रोशन करने का,

फिर क्यों बुझा दिए लालटेन हर घर के?

नहीं सोचा अंजाम, बूढ़ी आँखों को नम करने का?


ऐ ठेकेदार! मत भर झोली इतनी,

कि बोझ तले तू खुद ही दब जाए।

मुन्शी कहीं तेरा ही बनकर विभीषण,

तेरी काली कमाई को न उजागर कर जाए।


तू सिर्फ धर्म का ठेकेदार है, या

मंदिर-मस्जिद पे भी बोली लगाता है?

या फिर धर्म की इस बँटी बस्ती में

सिर्फ खून की होली मनाता है?


कौन जाति-धर्म का बना है रक्षक तू?

किसने ठेका दिया है आवंटन का?

कैसे भर देता है नफरत रगों में —

क्या तनिक भी खौफ नहीं तुझे भगवन का?


जिसके इशारों पे चलती है कायनात,

उसी को बांटने का तूने काम ले लिया!

अपने फायदे को झोंक दिया पूरा शहर,

और नारों में उसका नाम ले लिया!


अब बंद कर ये धर्म की दलाली,

इस देश को चैन की साँस लेने दे।

मत बरगला युवाओं को झूठे नारों से —

इस बेवजह की क्रांति को अब रहने दे।


जला कर बस्तियाँ रोशनी का ठेका लिया है,

कब तक कफन का सौदा करेगा?

इंसान के कानून से तू बेखौफ है,

क्या दोज़ख की आग से भी न डरेगा?


चल, अब अमन का सौदा कर,

शांति का बन जा तू सौदागर।

विश्व बंधुत्व के जुगनुओं से,

हर घर में फिर उजाला कर

हर घर मे फिर उजाला कर ||






Tuesday, August 19, 2025

कहाँ गए वो दिन?


 

कब तलक मन को समझाएँ,

अब कहाँ वो बात रही।

ना छाँव शिवालयी बरगद की,

ना रिश्तों की सौगात रही।


अंतर्देशी पर चिट्ठी ना आती,

बस मोबाइल की टन-टन है।

बातों में अब रस न बचा,

सब दिखावा, सब बेमन है।


गाँव के हाट-बाज़ार बिसरे,

मंडी अब मॉल बन गई।

गुड़ की मिठास ढूँढे को तरसे,

रिश्तों की हँसी मखौल बन गई।


कंधे पे चढ़ तारे देखते थे,

अब स्क्रीन में दिन-रात ढले।

खेल-खिलौना भूल गए बालक,

फोन की गिरफ्त में हर पल रहे।


ना चौपाल, ना बिरादरी बैठकी,

बस सोशल मीडिया की है मंडी।

मन कहे “चल जी ले थोड़ी देर”,

पर लाइक-कमेंट ही बन गई ज़िंदगी।


कहाँ गए वो धूल-धक्कड़ दिन,

जहाँ हर जख्म में माटी थी।

अब तो हर दर्द मे अस्पताल पहुचते,

पहले दादी ही मरहम लगाती थी।


उम्र बढ़ी तो ख्वाहिशें सिकुड़ीं,

जिम्मेदारी भारी, खुशियाँ भी बिखरीं।

रिश्ते छूटे, नाते बिसरे,

जीने की चाह भी धीरे-धीरे मुरझा सी गई।


फिर भी उम्मीद का दीप जलाए,

मन कहता है—“वो दिन लौटेंगे कभी।”

जहाँ मेल-जोल ही दौलत होगा,

और रिश्ते की अहमियत समझेंगे सभी।।


Thursday, August 14, 2025

आज हुए थे दो टुकड़े (14 August)


 आज हुए थे दो टुकड़े,

न सिर्फ़ ज़मीन के,

बल्कि सदियों से जुड़े रिश्तों के भी।


एक तरफ़ भारत, एक तरफ़ पाकिस्तान—

पर दर्द तो दोनों का एक ही था,

बस आँसू सरहद के आर-पार

अलग-अलग बहने लगे थे।


वो सरहद, जो नक्शे पर खींची गई थी,

हमारे आँगन से गुज़री—

जहाँ कभी बच्चे बिना नाम पूछे खेलते थे,

आज पहचान पूछकर बात करते हैं।


लाहौर की गलियों में जो ख़ुशबू थी,

वो दिल्ली के हवाओं में भी थी,

आज वही हवाएँ

बारूदी धुएँ से भरी हुयी है।


माँ ने बेटे को अमृतसर से कराची जाते देखा,

बेटी ने बाप को ढाका से दिल्ली आते देखा—

और दोनों ने यही सोचा,

क्या अब कभी मिलना होगा?


मस्जिद की अज़ान, मंदिर की घंटी,

गुरुद्वारे का शबद—

जो एक साथ गूंजते थे,

अब सरहद की दीवारों में कैद हैं।


वैसे तो घड़ी आजादी के जश्न का था... 

पर सच ये भी था कि इंसानियत

भारत-पाकिस्तान दोनों में

लहूलुहान होकर गिर गई थी।


आज हुए थे दो टुकड़े,

पर सच तो ये है—

ज़ख़्म अब भी एक ही हैं,

बस सीने अलग-अलग कर दिए गए।

 

Wednesday, August 6, 2025

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है..


 अब अम्बर भी आग उगलता,

बूँद-बूँद में डर बहता है।

हरियाली की सांसों में भी,

धीमा-धीमा ज़हर रहता है।


चिड़ियों की चहकें सहमी हैं,

पेड़ लगे हैं जैसे रोने।

धरती की धड़कन डगमग सी,

लगी है फूलों की लाली खोने।


सदियाँ जो थीं माँ की गोदी सी, 

अब अंगारों मे बदलने लगी है... 

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है।


नदियाँ मरती जाती हैं अब,

प्यास बुझाना भूल गई हैं।

मछलियाँ अब जलक्रीड़ा नहीं करती,

नदियाँ बाँध में डूब गई हैं।


कछुए, बगुले, बेकसूर बतख,

सब निर्वासन झेल रहे हैं।

धूप भरी है झीलों में अब,

घोंसले भी अंडों को धकेल रहे हैं।


सिकुड़ गए हैं बादल सारे,

अब बारिश तूफान मे ढ़लने लगी है... 

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है।


गगन चीरते लोहे जैसे

पेड़ों की शाखें टूट रही है 

बादल भी बिन पानी भटकते अब

बेज़ान सी ज़मीं सूख रहीं हैं।


ओज़ोन का आँचल फटा है,

चाँद नहीं अब सुकून देता है ।

तारों की चुप्पी बतलाती

विनाश को आज्ञा कौन देता है ।


सृष्टि थक कर बैठ गई है,

अब सृजन विनाश मे बदलने लगी है

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है।


क़सूर किसका पूछ रहे हो,

आईना थामो — देखो खुद को।

हमने ही बोया था ज़हर,

क्यूँ आरोप लगाते हो रुत को।


प्लास्टिक की साँसों से हमने,

धरती की धड़कन को रोका है 

विकास के नाम पे लूटी वन सम्पदा,

जो विकास नहीं एक धोखा है।


अब याचना से कुछ न होगा,

जब बद्दुआ चुपके से पलने लगी है... 

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है।


अब भी वक़्त है लौट चलें हम,

बीज नई सोच के बोएँ।

पत्तों से फिर प्रार्थना हो,

धरती का जीवन संजोए ।


धरती माँ की मौन व्यथा को

गीतों में फिर ढालें प्यारे।

पेड़ उगें, छाँवें बरसें,

खेत खुले फिर नदियाँ पुकारें।


नतमस्तक हों प्रकृति के आगे 

क्योंकि प्रकृति विनाश की ओर चलने लगी है 

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है 

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है...... 





Thursday, July 24, 2025

बेबस सच....


 

कौडियों के दाम जब बिक रहे ज़ज्बात ग़र
कैद खाना सा लगे जब स्वयं का ही घर
फिर किस जगह जाकर मिले कतरा भर सुकून
जब आंख मूँदते ही सताये भविष्य का डर

जब बिन विषधर के ज़ुबां उगलने लगे ज़हर
शब्द जब बन जाएँ तीर, और ढाल रहे बेअसर
फिर क्यों न टूटे कोई, जैसे पतझड़ में पत्ता
जब जिस्म बेच फिर भी चूल्हा न जले घर का अगर

मजबूरियों का फंदा तभी घोटता है साँस को
जब झूठ का शोर दबा दे सच की आवाज़ को
कौन करेगा बेवजह इच्छाओं का तर्पण यूँही
कुछ तो रोक रहा होगा हौसलों के परवाज को

किसका करता है मन त्यागना जहान को,
मुफलिसी छीन लेती है ख्वाब और अरमान को।
जब भीतर ही बसी हो बेचैनी हर घड़ी,
तो मौत भी लगे राहत फिर थके इंसान को।|

Friday, July 11, 2025

छलावा : The Beautiful illusion


 अति ऐतबार भी रिश्तों को अक्सर डूबा देता है 

लगी हो आग जिंदगी में तो पत्ता- पत्ता हवा देता है

लिहाज़ रखते- रखते रिश्ते का बेहिसाब लुटे हम

ज़ख्म नासूर बना हो तो मरहम भी सजा देता है

 

ख्याल आया है फिर ख्वाहिशों में रहने वाले का

और याद भी आया है तिरस्कार, झूठे हवाले का

हमें तो जूठन भी लज़ीज़ लगा करती थी उसकी 

 देना पड़ा हिसाब उसे ही एक -एक निवाले का


पाया था उसे अपना सबकुछ गवारा करके 

हमीं से ही बैठा है नासमझ किनारा करके 

उससे बिछड़ने का ख़्याल भी बिखरा देता था हमें 

चल दिया है आज हमें वह बेसहारा करके 


डूबना ही गर मुकद्दर है, तो डूबा ले पानी 

हम तो चुल्लू में डूबने से हो बैठे हैं नामी 

उसकी तो निगाहें भी काफ़ी थीं हमें डुबाने को...

जाने क्यों झूठ की उसे लानी पड़ी होगी सुनामी


Friday, July 4, 2025

"भड़ास : एक अनसुनी चीख़"


 कोई नहीं पढ़ता मेरी लिखी कहानियां

बातें भी मेरी लगती उनको बचकानियां

लहू निचोड़ के स्याही पन्नों पे उतार दी.. 

फिर भी मेहनत मेरी उनको लगती क्यूँ नादानियां? 


कल जब सारा शहर होगा मेरे आगे पीछे..... 

शायद तब मेरी शोहरत देगी उनको परेशानियां

मैं उनको फिर भी नहीं बताऊँगा उनकी हकीकत

मैं भूल नहीं सकता खुदा ने जो की है मेहरबानियां |


आज थोड़ा हालत नाजुक है तो मज़ाक बनाते सब 

मेरी सच्चाई मे भी दिखती है उनको खामियां 

मेरा भी तो है खुदा वक्त़ मेरा भी बदलेगा वो 

मेरी भी तो खुशियों की करता होगा वो निगेहबानियां|


मुझको हुनर दिया है तो पहचान भी दिलाएगा वो 

यूँही नहीं देता वो कलम हाथों मे सबको मरजानियां

आज खुद का ही पेट भर पा रहे हैं भले... 

कल हमारे नाम से लंगर लगेगें शहर मे हानिया |


थोड़ा सब्र कर इतनी जल्दी ना लगा अनुमान 

सफलता के लिए कुर्बान करनी पड़ती है जवानियां 

मैं एक एक कदम बढ़ रहा हूँ अपनी मजिल की ओर 

शोहरत पाने को करनी नहीं कोई बेमानियां||


हमने तो चींटी से सीखा है मेहनत का सलीका 

हमे तनिक विचलित नहीं करती बाज की ऊंची उडानियां 

वो जो तुम आज बेकार समझ के मारते हो ताने मुझे 

कल तुम्हारे बच्चे पढ़ेंगे मेरी कहानियाँ.... ♥️

Tuesday, January 25, 2022

अमर रहे हिंदी हमारी....


 'अ' अनपढ़ से होकर शुरू, 'ज्ञ'से ज्ञानी बनाती हिन्दी

देवनागरी लिपि से लिपिबद्ध, भाषा सबको सिखाती हिन्दी

बहुत सरल बहुत भावपूर्ण है, ना अलग कथन और करनी है

जग की वैज्ञानिक भाषा है जो, संस्कृत इसकी जननी है


बहुत व्यापक व्याकरण है इसका, सुसज्जित शब्दों के सार से

एक एक महाकाव्य सुशोभित है जिसका, रस छंद अलंकार से 

ऐसी गरिमामय भाषा अपनी, निज राष्ट्र मे अस्तित्व खो रहीं 

वर्षों जिसका इतिहास पुराना, अपनों मे ही विकल्प हो रहीं 


अनेक बोलियां अनेक लहजे मे, बोली जाती है हिन्दी

चाहे कबीर की सधुक्खडी हो, या तुलसी की हो अवधी

सब मे खुद को ढाल कर, खुद का तेज न खोए हिन्दी

पाश्चात्य भाषाओं के अतिक्रमण से, मन ही मन मे रोए हिन्दी


अपनों के ठुकराने का, टीस भी सह जाती है हिन्दी

वशीभूत आंग्ल भाषियों के मध्य, ठुकराई सी रह जाती हिन्दी

देख अपनों का सौतेलापन, 'मीरा' 'निराला' को खोजे हिन्दी

कहीं हफ्तों उपवास मे है, तो कहीं कहीं रोज़े मे हिन्दी


देख हिन्दी भाषा की ऐसी हालत, मन कुंठित हो जाता है

अपनों ने प्रताड़ित हो किया, फिर कहाँ कोई यश पाता है

संविधान ने भी दिया नहीं, जिसे राष्ट्र भाषा का है स्थान 

फिर भी अमर रहे हिंदी हमारी, और हमारा हिन्दुस्तान 



Sunday, September 5, 2021

“शिक्षक दिवस : गुरु वंदना”

अगर जीवन में गुरु न हों, तो क्या हम ज्ञान का मार्ग खोज पाते?
गुरु ही वे हैं जो अज्ञान के अंधकार में दीपक बनकर हमें दिशा दिखाते हैं।
शिक्षक दिवस हमें यही याद दिलाता है कि गुरु का सम्मान ही हमारी सबसे बड़ी पूजा है।

                                        

प्रभु तेरा गुणगान कर सकूँ

इस काबिल जिसने बनाया है

मेरे अज्ञानरूपी अंधकार में

ज्ञान का दीपक जलाया है|


उन गुरुओं के चरणों मे सदा

शीश अपना झुकाया है

प्रभु तेरे इस दिव्य स्वरुप को

आखर -आखर से सजाया है|


जिसने ज्ञान की जोत जलायी

जिसने अक्षर की पहचान दिया

गुरु के ज्ञान से होकर काबिल

सबको जग ने सम्मान दिया|


उस गुरु का मान रख सकें

प्रभु इतना वरदान देना

हम भी गुरु पग चिह्न पर चले

हमको सन्मार्ग की पहचान देना|


मेरे गुरु तारणहार है मेरे

मेरे पहले भगवान भी

हे गुरुवर! तुम ज्ञाता हो जग के

प्रभु तुल्य इंसान भी|


महिमा तुम्हारी वर्णन कर सकूँ 

मुझमे इतना ज्ञान नहीं 

वह मंदिर भी श्मशान सा मेरे लिए 

जहां गुरुओं का सम्मान नहीं|


शब्द नहीं उचित उपमा को 

अब कलम को देता विराम हूँ 

गुरुवर आप अजर अमर रहें 

चरणों मे करता प्रणाम हूँ 

चरणों में करता प्रणाम हूँ||


गुरु का सम्मान केवल एक दिन का उत्सव नहीं, बल्कि जीवनभर की साधना है।

जिस समाज में गुरु का आदर नहीं, वहां शिक्षा का प्रकाश कभी स्थायी नहीं हो सकता।

आइए, इस शिक्षक दिवस पर हम प्रण करें कि गुरुजनों का सम्मान केवल शब्दों में नहीं, बल्कि अपने आचरण और कर्मों से करेंगे।


💬 आपके जीवन में किस गुरु ने सबसे गहरा प्रभाव डाला? कृपया नीचे कमेंट में साझा करें।

शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं