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Tuesday, August 19, 2025

कहाँ गए वो दिन?


 

कब तलक मन को समझाएँ,

अब कहाँ वो बात रही।

ना छाँव शिवालयी बरगद की,

ना रिश्तों की सौगात रही।


अंतर्देशी पर चिट्ठी ना आती,

बस मोबाइल की टन-टन है।

बातों में अब रस न बचा,

सब दिखावा, सब बेमन है।


गाँव के हाट-बाज़ार बिसरे,

मंडी अब मॉल बन गई।

गुड़ की मिठास ढूँढे को तरसे,

रिश्तों की हँसी मखौल बन गई।


कंधे पे चढ़ तारे देखते थे,

अब स्क्रीन में दिन-रात ढले।

खेल-खिलौना भूल गए बालक,

फोन की गिरफ्त में हर पल रहे।


ना चौपाल, ना बिरादरी बैठकी,

बस सोशल मीडिया की है मंडी।

मन कहे “चल जी ले थोड़ी देर”,

पर लाइक-कमेंट ही बन गई ज़िंदगी।


कहाँ गए वो धूल-धक्कड़ दिन,

जहाँ हर जख्म में माटी थी।

अब तो हर दर्द मे अस्पताल पहुचते,

पहले दादी ही मरहम लगाती थी।


उम्र बढ़ी तो ख्वाहिशें सिकुड़ीं,

जिम्मेदारी भारी, खुशियाँ भी बिखरीं।

रिश्ते छूटे, नाते बिसरे,

जीने की चाह भी धीरे-धीरे मुरझा सी गई।


फिर भी उम्मीद का दीप जलाए,

मन कहता है—“वो दिन लौटेंगे कभी।”

जहाँ मेल-जोल ही दौलत होगा,

और रिश्ते की अहमियत समझेंगे सभी।।


Thursday, August 14, 2025

आज हुए थे दो टुकड़े (14 August)


 आज हुए थे दो टुकड़े,

न सिर्फ़ ज़मीन के,

बल्कि सदियों से जुड़े रिश्तों के भी।


एक तरफ़ भारत, एक तरफ़ पाकिस्तान—

पर दर्द तो दोनों का एक ही था,

बस आँसू सरहद के आर-पार

अलग-अलग बहने लगे थे।


वो सरहद, जो नक्शे पर खींची गई थी,

हमारे आँगन से गुज़री—

जहाँ कभी बच्चे बिना नाम पूछे खेलते थे,

आज पहचान पूछकर बात करते हैं।


लाहौर की गलियों में जो ख़ुशबू थी,

वो दिल्ली के हवाओं में भी थी,

आज वही हवाएँ

बारूदी धुएँ से भरी हुयी है।


माँ ने बेटे को अमृतसर से कराची जाते देखा,

बेटी ने बाप को ढाका से दिल्ली आते देखा—

और दोनों ने यही सोचा,

क्या अब कभी मिलना होगा?


मस्जिद की अज़ान, मंदिर की घंटी,

गुरुद्वारे का शबद—

जो एक साथ गूंजते थे,

अब सरहद की दीवारों में कैद हैं।


वैसे तो घड़ी आजादी के जश्न का था... 

पर सच ये भी था कि इंसानियत

भारत-पाकिस्तान दोनों में

लहूलुहान होकर गिर गई थी।


आज हुए थे दो टुकड़े,

पर सच तो ये है—

ज़ख़्म अब भी एक ही हैं,

बस सीने अलग-अलग कर दिए गए।

 

Wednesday, August 6, 2025

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है..


 अब अम्बर भी आग उगलता,

बूँद-बूँद में डर बहता है।

हरियाली की सांसों में भी,

धीमा-धीमा ज़हर रहता है।


चिड़ियों की चहकें सहमी हैं,

पेड़ लगे हैं जैसे रोने।

धरती की धड़कन डगमग सी,

लगी है फूलों की लाली खोने।


सदियाँ जो थीं माँ की गोदी सी, 

अब अंगारों मे बदलने लगी है... 

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है।


नदियाँ मरती जाती हैं अब,

प्यास बुझाना भूल गई हैं।

मछलियाँ अब जलक्रीड़ा नहीं करती,

नदियाँ बाँध में डूब गई हैं।


कछुए, बगुले, बेकसूर बतख,

सब निर्वासन झेल रहे हैं।

धूप भरी है झीलों में अब,

घोंसले भी अंडों को धकेल रहे हैं।


सिकुड़ गए हैं बादल सारे,

अब बारिश तूफान मे ढ़लने लगी है... 

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है।


गगन चीरते लोहे जैसे

पेड़ों की शाखें टूट रही है 

बादल भी बिन पानी भटकते अब

बेज़ान सी ज़मीं सूख रहीं हैं।


ओज़ोन का आँचल फटा है,

चाँद नहीं अब सुकून देता है ।

तारों की चुप्पी बतलाती

विनाश को आज्ञा कौन देता है ।


सृष्टि थक कर बैठ गई है,

अब सृजन विनाश मे बदलने लगी है

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है।


क़सूर किसका पूछ रहे हो,

आईना थामो — देखो खुद को।

हमने ही बोया था ज़हर,

क्यूँ आरोप लगाते हो रुत को।


प्लास्टिक की साँसों से हमने,

धरती की धड़कन को रोका है 

विकास के नाम पे लूटी वन सम्पदा,

जो विकास नहीं एक धोखा है।


अब याचना से कुछ न होगा,

जब बद्दुआ चुपके से पलने लगी है... 

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है।


अब भी वक़्त है लौट चलें हम,

बीज नई सोच के बोएँ।

पत्तों से फिर प्रार्थना हो,

धरती का जीवन संजोए ।


धरती माँ की मौन व्यथा को

गीतों में फिर ढालें प्यारे।

पेड़ उगें, छाँवें बरसें,

खेत खुले फिर नदियाँ पुकारें।


नतमस्तक हों प्रकृति के आगे 

क्योंकि प्रकृति विनाश की ओर चलने लगी है 

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है 

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है...... 





Thursday, July 24, 2025

बेबस सच....


 

कौडियों के दाम जब बिक रहे ज़ज्बात ग़र
कैद खाना सा लगे जब स्वयं का ही घर
फिर किस जगह जाकर मिले कतरा भर सुकून
जब आंख मूँदते ही सताये भविष्य का डर

जब बिन विषधर के ज़ुबां उगलने लगे ज़हर
शब्द जब बन जाएँ तीर, और ढाल रहे बेअसर
फिर क्यों न टूटे कोई, जैसे पतझड़ में पत्ता
जब जिस्म बेच फिर भी चूल्हा न जले घर का अगर

मजबूरियों का फंदा तभी घोटता है साँस को
जब झूठ का शोर दबा दे सच की आवाज़ को
कौन करेगा बेवजह इच्छाओं का तर्पण यूँही
कुछ तो रोक रहा होगा हौसलों के परवाज को

किसका करता है मन त्यागना जहान को,
मुफलिसी छीन लेती है ख्वाब और अरमान को।
जब भीतर ही बसी हो बेचैनी हर घड़ी,
तो मौत भी लगे राहत फिर थके इंसान को।|

Friday, July 11, 2025

छलावा : The Beautiful illusion


 अति ऐतबार भी रिश्तों को अक्सर डूबा देता है 

लगी हो आग जिंदगी में तो पत्ता- पत्ता हवा देता है

लिहाज़ रखते- रखते रिश्ते का बेहिसाब लुटे हम

ज़ख्म नासूर बना हो तो मरहम भी सजा देता है

 

ख्याल आया है फिर ख्वाहिशों में रहने वाले का

और याद भी आया है तिरस्कार, झूठे हवाले का

हमें तो जूठन भी लज़ीज़ लगा करती थी उसकी 

 देना पड़ा हिसाब उसे ही एक -एक निवाले का


पाया था उसे अपना सबकुछ गवारा करके 

हमीं से ही बैठा है नासमझ किनारा करके 

उससे बिछड़ने का ख़्याल भी बिखरा देता था हमें 

चल दिया है आज हमें वह बेसहारा करके 


डूबना ही गर मुकद्दर है, तो डूबा ले पानी 

हम तो चुल्लू में डूबने से हो बैठे हैं नामी 

उसकी तो निगाहें भी काफ़ी थीं हमें डुबाने को...

जाने क्यों झूठ की उसे लानी पड़ी होगी सुनामी


Friday, July 4, 2025

"भड़ास : एक अनसुनी चीख़"


 कोई नहीं पढ़ता मेरी लिखी कहानियां

बातें भी मेरी लगती उनको बचकानियां

लहू निचोड़ के स्याही पन्नों पे उतार दी.. 

फिर भी मेहनत मेरी उनको लगती क्यूँ नादानियां? 


कल जब सारा शहर होगा मेरे आगे पीछे..... 

शायद तब मेरी शोहरत देगी उनको परेशानियां

मैं उनको फिर भी नहीं बताऊँगा उनकी हकीकत

मैं भूल नहीं सकता खुदा ने जो की है मेहरबानियां |


आज थोड़ा हालत नाजुक है तो मज़ाक बनाते सब 

मेरी सच्चाई मे भी दिखती है उनको खामियां 

मेरा भी तो है खुदा वक्त़ मेरा भी बदलेगा वो 

मेरी भी तो खुशियों की करता होगा वो निगेहबानियां|


मुझको हुनर दिया है तो पहचान भी दिलाएगा वो 

यूँही नहीं देता वो कलम हाथों मे सबको मरजानियां

आज खुद का ही पेट भर पा रहे हैं भले... 

कल हमारे नाम से लंगर लगेगें शहर मे हानिया |


थोड़ा सब्र कर इतनी जल्दी ना लगा अनुमान 

सफलता के लिए कुर्बान करनी पड़ती है जवानियां 

मैं एक एक कदम बढ़ रहा हूँ अपनी मजिल की ओर 

शोहरत पाने को करनी नहीं कोई बेमानियां||


हमने तो चींटी से सीखा है मेहनत का सलीका 

हमे तनिक विचलित नहीं करती बाज की ऊंची उडानियां 

वो जो तुम आज बेकार समझ के मारते हो ताने मुझे 

कल तुम्हारे बच्चे पढ़ेंगे मेरी कहानियाँ.... ♥️