Saturday, October 9, 2021
Saturday, October 2, 2021
मैं फिर मिलूंगा....
हम फिर मिलेंगे कभी....
शायद इस जनम मे तो नहीं
पर मेरा अटल विश्वास है
मैं तेरे दिल मे हमेशा रहूँगा
कहीं किसी सीप मे मोती की तरह
कभी हारिल की लकड़ी सा
अब आँखों से तेरी ओझल हो गया
चाह कर भी कहीं ढूंढ ना पाओगे
पर तुझमे मुझको ढूंढेगी दुनिया
जैसे चांद के संग चौकोर
जैसे इन्द्रधनुष और मोर
किस्से अपने या कुछ और
मैं तेरी यादों से लिपट जाउंगा
पर तुझे भी बहुत याद आऊंगा
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर पलकें तेरी भी जरूर भीगेगी
सैलाब ना सही चंद बूँदों से
तेरी आंख का काजल भी मिटेगा
या फ़िर यादों का फव्वारा
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें बनकर
तेरे बदन से रिसने लगूंगा
और एक ठंडक सी बन कर
तेरे सीने से लगूंगा
मुझे कुछ नहीं पता
पर इतना जरूर जानता हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह लम्हा मेरे साथ चलेगा
यह शरीर खत्म होता है
तो सब कुछ खत्म हो जाता है
पर ये नूरानी रूह के धागे
कायनात तक जोड़े रखते हैं
उन्हीं धागों के सहारे
मैं तुझसे जुड़ा मिलूंगा
बस इस जन्म की नींद से जागते ही
तुझे उस जन्म मे फ़िर मिलूंगा !!
(हैरी)
Monday, September 27, 2021
भटकता मुसाफिर..
आखिर तुम्हें क्या तकलीफ है पथिक
खामोश और तन्हा घूम रहे हो
सूरज भी झील मे डूब गया है,
और कोई पक्षी भी चहचहाता नहीं है।
आखिर तुम्हें क्या तकलीफ है पथिक
इतना गुमसुम और इतना दर्द ?
गिलहरी का भण्डार भरा हुआ है,
और नयी फसल पकने को है।
तुम्हारे माथे पर एक शिकन है,
पीड़ित नम पलके और रुआँसा के साथ,
तेरे सुर्ख गालों पर खिलता एक गुलाब
जल्दी मुरझा भी जाता है।
मैं स्वप्न में एक स्त्री से मिला,
जो हुस्न-ए-अप्सरा लिए थी ,
जिसके केशों ने पग छुए थे उसके
और आँखों मे समुद्र समाया था।
मैंने उसे सोलह श्रृंगार कराए,
और कंगन संग दिया इत्र भी
उसने मुझे यूँ प्यार से देखा
मानो सच्चा प्यार किया हो उसने भी |
मैंने उसे यूँ पलकों मे बिठाया,
फिर दिन भर कुछ और देखा नही,
पूर्णिमा के चांद सा चेहरा लिए ,
गुम हो गई वो बादलों मे कहीं ।
अब भी आंखे तलाश में उसके,
नित हर ओर उसे खोजती हैं
मानो कोई भोर का सपना,
जो मैंने देखा था कभी।
मैंने उसकी होंठों की उदासी में देखा,
एक भयानक चेतावनी और इंतकाम,
जब मैं जागा और खुद को पाया,
एक ठंडी पहाड़ी की तरफ।
और इसलिए मैं यहां भ्रमण करता हूं,
अकेला और बेरूखी लिए हुए,
मानो झील से सेज सूख गया हो,
और पक्षी भी कोई गाता नहीं यहाँ।
(हैरी)
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मैं मिलावटी रिश्तों का धंधा नहीं करता बेवजह किसी को शर्मिदा नहीं करता मैं भलीभाँति वाकिफ हूँ अपने कर्मों से तभी गंगा मे उतर कर उसे गंदा...
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मैं कब कहाँ क्या लिख दूँ इस बात से खुद भी बेजार हूँ मैं किसी के लिए बेशकीमती किसी के लिए बेकार हूँ समझ सका जो अब तक मुझको कायल मेरी छवि का...




