Tuesday, June 17, 2025

"ज्वलंत प्रश्न — खामोशियों को चीरती आवाज़"



बोलो सरकारें क्यों सोई हैं ?
जनता की पीड़ा समझा कब कोई है?
हर कोना जलता है चुपचाप,
सच को सुनता भी अब कहा कोई है।

शहरों में सांसें बिकती हैं,
गांवों की आंखें फिकती हैं।
भूखा किसान मर जाए चुप,
नेताओं की चालें टिकती हैं।

दंगों में बँटती इंसानियत,
जातों में सड़ती पहचानियत।
बेटी की चूड़ी टूटी जब,
मौन रही फिर भी प्रशासनियत।

पेड़ों को काटो, फिर रोओ,
पसीने से अब तुम खुद को धोओ ?
धरती भी अब चीख रही है,
फिर भी सब मौन धरो और, सोओ।

डिग्रियाँ लिए युवक बैठे,
ख्वाबों के जले पंख सड़ते हैं।
सिस्टम का हर दरवाज़ा बंद,
फिर भी सपनों के ताबूत गढ़ते हैं।

कोचिंग के नाम पे लूट है,
ज्ञान बेचने का मानो कारोबार है 
फिर भी उम्मीदों की लौ है जलाये,
ना जाने क्यूँ हर एक बेरोज़गार है?

कुछ तो जनहित मे अब काम करो,
यूँ नौजवां के भविष्य से खेलना ठीक नहीं,
हर साल बस वादों का झांसा न दो।
हक़ मानते हैं हम, कोई भीख नहीं।|



Wednesday, June 11, 2025

दिखावे से इंकार...

 

मैं मिलावटी रिश्तों का धंधा नहीं करता
बेवजह किसी को शर्मिदा नहीं करता
मैं भलीभाँति वाकिफ हूँ अपने कर्मों से
तभी गंगा मे उतर कर उसे गंदा नही करता ||

जिस्म तो धों लेते हैं लोग ज़मज़म के पानी से
मगर मरी हुई रूह कोई जिंदा नहीं करता
अक्सर घाटों पे उमड़ी भीड़ याद दिलाती है मुझे
गलत कर्म सिर्फ दरिन्दा नहीं करता ||

हजार वज़ह दिए हैं ज़माने ने बेआबरू होने का
मगर मैं किसी बात की अब चिंता नहीं करता
भेड़िये के खाल मे छिपे हर शख्स से हूँ रूबरू
तभी कभी किसी से कुछ मिन्ता नहीं करता ||

वो जो ज्ञान की पाठशाला खोल के बैठे हैं
घर पे कभी हरे कृष्णा हरे गोविंदा नहीं करता
दिखावट से तो लगता सारे वेदों का ज्ञाता
मगर बाते उसकी जैसी कोई परिंदा नहीं करता ||

आम आदमी तो यूँ ही बदनाम है बेरूखी के लिए
भूखे पेट भजन कोई बाशिंदा नहीं करता
बखूबी जानता हूं असलियत सभ्य समाज की
मैं बेफिजूल किसी की निंदा नहीं करता ||



Saturday, June 7, 2025

मैं धरती हूँ.....



मैं धरती हूँ...
कभी रंगों से भरी थी, अब वीरान हो गई हूँ।
कभी बच्चों की हँसी से गूंजती थी,
अब मशीनों की गूँज में खो गई हूँ।

मेरे आँचल में फूल थे, अब केवल बची झाड़ियाँ है,
मेरे दिल में नदियाँ थीं, अब शोर मचाती गाड़ियां है।
पेड़ जो मेरी साँस थे, कट गए प्रगति के नाम पर,
और तू चुप रहा, भरता रहा सिर्फ अपना घर।

तू खो गया है — शहरों की चकाचौंध में,
पर भूल गया — मैं ही तेरी साँसों की आधार हूँ।
वो बारिशें जो कभी तुम्हें कभी झूमने को करती थीं बेबस,
आज मैं खुद उन बूँदों को तरसती हताश और लाचार हूं।

मैं थक गई हूँ, सच में…
हर दिन एक ज़हर पीती हूँ तुम्हारे विकास के नाम पर,
और मुस्कुराती हूँ, क्योंकि माँ हूँ — पर अब घुट रही हूँ
अब तो थोड़ा मेरे हक मे भी इन्साफ कर|

अब भी अगर ना चेते,
तो ये हरियाली सिर्फ पुरानी तस्वीरों में होगी।
ये फूल सिर्फ किताबों में मिलेंगे,
और बच्चों के लिए ‘पेड़’ एक ड्राइंग बन जाएगा।

तो उठो…
ये सिर्फ पर्यावरण दिवस नहीं —
ये मेरी अंतिम पुकार है,
एक माँ की चीख़ —
जो अब भी चाहती है कि उसका बच्चा सुधर जाए|




Tuesday, May 27, 2025

दुनिया जालिम है....


 

दुनिया ज़ालिम है —
ये कोई शायर की शेख़ी नहीं,
बल्कि रोज़ सुबह की ख़बर है,
जिसे अख़बार भी छापते-छापते थक चुका है।

यहां आँसू ट्रेंड नहीं करते,
दर्द को 'डिज़ाइन' किया जाता है,
और सच्चाई?
वो तो शायद किसी पुरानी किताब के पन्नों में
धूल फाँक रही है।

यहां रिश्ते
व्हाट्सऐप के आख़िरी देखे गए समय जितने सच्चे हैं,
और भरोसा —
पासवर्ड की तरह, हर महीने बदलता रहता है।

बच्चे सपनों में खिलौने नहीं,
रखते हैं नौकरी की चिंता,
और बूढ़े,
यादों की गर्मी में ज़िंदा रहने की कोशिश करते हैं।

दुनिया ज़ालिम है,
क्योंकि यहां सवाल पूछना गुनाह है,
और खामोशी —
इंसान की सबसे क़ीमती पूंजी।

पर फिर भी,
हम हर सुबह उठते हैं,
चेहरे पे उम्मीद का मास्क लगाते हैं,
और चल पड़ते हैं —
इस ज़ालिम दुनिया को थोड़ा बेहतर बनाने की कोशिश में।|


Saturday, April 12, 2025

तुम राम बनो या रहीम...


 तुम राम बनो रहीम बनो, 
इस देश के महामहिम बनो 
और तोल सके जो धर्म-अधर्म को, 
तुम वो आधुनिक मशीन बनो...

सत्ता का तुम को गर्व ना हो, 
ना सिर्फ जीत की अभिलाषा हो
तुमसे भय हो हर सशक्त को  
पर तुमसे हर गरीब को आशा हो

तेरे बल से तू जग को जीते 
पर कर्म परायण हो युधिष्ठिर जैसा 
जब बात न्याय धर्म की आये 
निर्णय में अपना पराया कैसा 

जैसे भेद न करता सूर्य 
राजा और रंक मे 
जैसे शीतलता देने की है प्रकृति 
कोशों मील धूम रहे मयंक मे

तू भी अपना धर्म निभाना 
वजह झगड़े की जड़, जोरु या ज‌मीन हो 
तुम हो प्रधान सेवक जनमानस के 
चाहे ओहदे से महामहिम हो ||
                                जय हिन्द।