जाति धर्म समुदाय के नाम पे कट रहे हैं लोग
इन्सानियत और अपनेपन को भुला चुके हैं
धीरे-धीरे परिवार मे तभी घट रहे हैं लोग
भाई-भाई से निभा दुश्मनी रहे यहाँ हैं लोग
पड़ोसी का जो हाल पूछते अब कहाँ हैं लोग
अब मैं भी फिरता रहता हूं खोजने को एक दुनियाँ
इन्सानियत को सबसे ऊपर समझते जहाँ हो लोग
मुँह मे राम बगल मे छुरा करते हैं सब लोग
अपनों की उन्नति देख जल मरते हैं अब लोग
उस कुंए को भी प्यासा छोड़ देती है ये दुनियाँ
शीतल जल उसका अपने गागर मे भरते हैं जब लोग
अपनों की ख़बर नहीं पर गैरों को मनाते हैं लोग
रावण के हैं भक्त बने और राम को जलाते हैं लोग
जिनके आदर्शों से चलती आ रहीं है दुनियाँ
धीरे-धीरे उन्हीं की साख को मिट्टी मे मिलाते हैं लोग
बेच बाप की जमीन नया कारोबार लगा रहे हैं लोग
बुढ़ी माँ बीमार है मगर पैसा उधार लगा रहे हैं लोग
कितने कमजोर हो गए रिश्ते दुनियां मे
अपनों के डर से गैरों को चौकीदार बना रहे हैं लोग
युधिष्ठिर को भुलाकर दुर्योधन बनने लगे हैं लोग
भ्रष्टाचार और नफरत के कीचड़ मे सनने लगे हैं लोग
अब धर्म की नीति नहीं बल्कि नीति के लिए धर्म को
तोड़ मरोड़ कर जनता पे मड़ने लगे हैं कुछ लोग