Sunday, December 22, 2024

कल बहुत पछताओगे...


 नफ़रतों का दौर है साजिश के मुहल्ले मे

लूट की कमाई है बेईमानों के गल्ले मे

भूख से कराहते गरीब अपनी झोपड़ी में

सारी दौलत धरी पडी है अमीरों के पल्ले मे


भूख की आग से अधजला भिखारी है

वस्त्र विहीन पडी अर्द्ध मूर्छित नारी है

खिलोनों वाले हाथो मे तगार भरा तसला है

जाति धर्म आज भी सबसे बड़ी बिमारी है


एक है वो जो कुछ खरोंच से हैरान है

किसी की तपती ईट के भट्टे में जान है 

किसी की तो मिटती नहीं भूख दौलत की कभी 

कोई सौ रुपये के लिए भी यहां बहुत परेशान हैं 


मजबूर हर आदमी जर जर हालात है 

प्यादे भी देते कभी वजीर को मात है 

सिकंदर कितने ही समा गए इस मिट्टी मे 

फिर भी सर्वेसर्वा समझे खुद को एक जमात है 


गहराई नदी नालों का तो नाप लिया इंसान ने 

खुद की गहराई  नापने का ना कोई औजार है 

हर चीज करीब ले आयी विज्ञान की नई खोज ने 

बस अपनों को करीब रखने को ना कोई तैयार है 


मखमली बिस्तर के लिए नींद कहाँ से लाओगे 

मजलूम और बेसहारों को कब तक सताओगे

अंत मे सबकुछ यहां धरा का धरा रह जाना है 

कल खुद ही खुद के कर्मों पे तुम बहुत पछताओगे ||


12 comments:

  1. Replies
    1. बहुत बहुत आभार गुरुजी correction के लिए 🙏

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  2. आपकी कविता पढ़ते वक्त ऐसा लगा जैसे किसी ने कोई आईना सामने रख दिया हो जिसमें हम सबकी असलियत दिख रही है। एक-एक पंक्ति जैसे चुपचाप चीख रही हो। आपके शब्द सिर्फ कविता नहीं हैं, ये एक दस्तक हैं — ज़मीर पे, समाज पे, सिस्टम पे। बहुत बढ़िया भाईसाब ऐसे ही लिखते रहना आगे भी।

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