बाहों में किसी के ख्वाबों मे कोई और है
गलती तेरी भी नहीं कमबख्त बेवफाई का ही दौर है
कैसे तू भी किसी एक की हो कर रह सकती है ताउम्र
कहां हुस्न पर इश्क की पाबंदियों का अब जोर है
इस स्टेपनी वाले ज़माने मे कहां गुजारा होगा एक बंदे से
तमाम खानदानो का घर चलता है इस बेवफाई के धंधे से
इश्क पे भारी पड़ने लगी है दौलत ए हुस्न की कालाबाजारी
जबरन खुद का ही घर जलाया जाता है नादां परिंदे से
जिसको तौला नहीं जा सकता उसे तौल रहे हैं लोग
चंद रुपयों के लिए खुद से भी झूठ बोल रहे है लोग
ना जाने कैसा दौर आ गया कमबख्त फरेबी लोगों का
इतिहास छोड़कर रिश्तों मे देख भूगोल रहे हैं लोग
झूठा साबित करने मे लगे हैं हर रिश्ते की तस्वीर को
मोहब्बत से भी ऊपर रखते हैं लोग जागीर को
पागल हुए फिरते हैं देखने को ताजमहल 'मगर'
कौन समझ पाया है यहाँ मुमताज की तकदीर को
यकीनन अब रांझा भी छोड़ सकता है हीर को
कोई क्यूँ सुनेगा अब बुल्लेशाह सरीखे फकीर को
सही गलत से क्या ही फरक पडता है किसी को यहां
जहां पवित्र आत्मा से ज्यादा तवज्जो मिलती हो शरीर को ||
☺️☺️☺️☺️
ReplyDeleteनैतिक मूल्यों के पतन का दौर है कविराज। यहाँ दोहरी मानसिकता और पाखण्ड का बोलबाला है। जीवन और समाज की वीभत्स सच्चाई को अच्छी तरह से शब्दांकित किया है आपने प्रिय हरीश जी। हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं🙏
ReplyDeleteहा हा:)
ReplyDeleteDeadly combination of words✨kudos to you🤗
ReplyDeleteक्या बात है वाह ... करीब-करीब नहीं बिल्कुल सच है।
ReplyDeleteसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ३ जनवरी २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
नववर्ष २०२५ मंगलमय हो।
कहाँ अब नैतिक मूल्यों को लेकर चलते हैं अब ...हर तरफ मुखौटा
ReplyDeleteहै ..।
💯 true words.. Reality of today's generation ♥️
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