जीते जी चार कंधों का इंतजार कर रहा हूं
मैं हर दर पे मौत की दुआ हर बार कर रहा हूँ
जो चले गए वो ना लौटेंगे जो पास हैं वो साथ नहीं
लोग भरोसा करते है लकीरों पे, मैं खुदा की रहमत से भी इंकार कर रहा हूँ
जो उजड़ गए है इमारत सपनों के
मैं दिलों जान से उन्हें बेजार कर रहा हूँ
तुम खुश हो जहां भी हो ये भी सही तो है
अब मैं ही खुद को तेरी महफिल से दर किनार कर रहा हूँ
कभी लगता था तुम ही हो सबसे करीब मेरे
अब खुद के ज़ख्मों को कुरेद के बीमार कर रहा हूँ
घाव भर तो गए छाले अंदरूनी आज भी हैं मगर
तेरे आने की आस में अब भी अपना वक्त बेकार कर रहा हूँ
कभी मुझे मोहब्बत थी ज़िंदगी के हर लम्हे से
अब खुद ही खुद को डुबाने के लिए तैयार कर रहा हूँ
अब ना तुम रहे ना वो लम्हे ना दिलों मे जगह अपनी
इसलिए खुद को तोड़ कर तार तार कर रहा हूँ
हर टूटे टुकड़े मे अब सिर्फ मेरा आयाम होगा
ना किसी की दास्तान ना नाम होगा
अब खुद ही खुद को कोसते रहेंगे जिंदगी भर
ना किसी से उम्मीद ना किसी पे इल्ज़ाम होगा
अथाह दर्द समेटे हृदयस्पर्शि सृजन।।
ReplyDeleteबहुत मार्मिक रचना।
बहुत-बहुत शुक्रिया mam
Deleteबहुत ही भावपूर्ण एवं हृदयस्पर्शी सृजन ।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया mam
Deleteबेशुमार दर्द समेटे सुंदर रहना।
ReplyDeleteBe positive 😊
शुक्रिया....
Delete