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Monday, August 25, 2025

अँधेरे के सौदागर



ऐ मुन्शी, जाकर कह दो ठेकेदार से,

क्यों सघन अंधेरा छाया है बस्ती में?

क्यों लोग आतुर हैं, खाने को अपनों को ही,

क्या सच में बदल गई है दुनिया नरभक्षी में?


उसी के हिस्से आया था ठेका शायद —

हर कोना शहर का रोशन करने का,

फिर क्यों बुझा दिए लालटेन हर घर के?

नहीं सोचा अंजाम, बूढ़ी आँखों को नम करने का?


ऐ ठेकेदार! मत भर झोली इतनी,

कि बोझ तले तू खुद ही दब जाए।

मुन्शी कहीं तेरा ही बनकर विभीषण,

तेरी काली कमाई को न उजागर कर जाए।


तू सिर्फ धर्म का ठेकेदार है, या

मंदिर-मस्जिद पे भी बोली लगाता है?

या फिर धर्म की इस बँटी बस्ती में

सिर्फ खून की होली मनाता है?


कौन जाति-धर्म का बना है रक्षक तू?

किसने ठेका दिया है आवंटन का?

कैसे भर देता है नफरत रगों में —

क्या तनिक भी खौफ नहीं तुझे भगवन का?


जिसके इशारों पे चलती है कायनात,

उसी को बांटने का तूने काम ले लिया!

अपने फायदे को झोंक दिया पूरा शहर,

और नारों में उसका नाम ले लिया!


अब बंद कर ये धर्म की दलाली,

इस देश को चैन की साँस लेने दे।

मत बरगला युवाओं को झूठे नारों से —

इस बेवजह की क्रांति को अब रहने दे।


जला कर बस्तियाँ रोशनी का ठेका लिया है,

कब तक कफन का सौदा करेगा?

इंसान के कानून से तू बेखौफ है,

क्या दोज़ख की आग से भी न डरेगा?


चल, अब अमन का सौदा कर,

शांति का बन जा तू सौदागर।

विश्व बंधुत्व के जुगनुओं से,

हर घर में फिर उजाला कर

हर घर मे फिर उजाला कर ||