Friday, March 4, 2022

पढ़ा लिखा बेरोजगार...




खोने को कुछ नहीं, पाने को पूरा आसमान पड़ा

व्याकुल विचलित एक शख्स, असमंजस में जो खड़ा

दोहरी मनोदशा पे शायद, हो रहा सवार है

कोई और नहीं साहिब, एक पढ़ा लिखा बेरोजगार है




एक उथल पुथल सोच में, निकला वो खुद की खोज में

रात रात भर जाग कर, दब चुका सपनों के बोझ में

भँवर से तो निकल आया, अब नौका पड़ी मझधार है

असहाय वो, देश का भविष्य, पढ़ा लिखा बेरोजगार है




मंजिल पाने को आतुर,अवसरों से कोसों दूर ...

आज नालायक हो गया, जो कल तक था घर का गुरूर

माथे पे शिकन की लकीर लिए, हालातों से लाचार है

किस्मत और दुनियाँ से लड़ता, पढ़ा लिखा बेरोजगार है





कागज की रद्दी सी अब, लगती दर्जनों डिग्रियाँ...

मंदिर मस्जिद में व्यस्त देश, रोजगार की किसे फिक्र यहाँ

वक्त का साथ भी छूटा सा लगे, उम्मींदों का हारा परिवार है

निराशा मे आशा को ढूंढता, पढ़ा लिखा बेरोजगार है




मनोबल टूटा क‌ई दफा, अपनों के तिरस्कार से

निकम्मा, निठल्ला, क्या कुछ न सुना, सरे आम रिश्तेदार से।

फिर भी हौसले बांध, निसहाय संघर्षरत, तैयार है...

डगमगाते कदमों को संभालता, पढ़ा लिखा बेरोजगार है।




चाचा फूफा आयोग में नहीं, जीजा कोई न किसी विभाग में,

काबिलियत कम पड़ जाती, सिर चढ़ती भाई-भतीजावाद में...

कैसे कहूं क्या कुछ सहता है,ये तो बस एक सार है,

फिर भी सफलता की आश लगाए, हर पढ़ा लिखा बेरोजगार है।



Tuesday, February 22, 2022

आदमी क्या है...?


 आदमी क्या है 

जलता अंगारा...?

जो आसूं नहीं बहा सकता 

मगर जल सकता है राख होने तक

बिना ये कहे कि तकलीफ में हूं।


आदमी क्या है 

जिनी चिराग...? 

जिसका कोई निज स्वार्थ नहीं 

मगर आजीवन घिसता रहता है 

सिर्फ अपनों की खुशियों के खातिर  


आदमी क्या है 

जांबाज सिपाही...? 

कायरता पे जिसका अधिकार नहीं 

हर हाल मे उसको लड़ना है 

कभी अपनों से कभी हालातों से 


आदमी क्या है 

संयोजक कड़ी...? 

उतार चड़ाव भरी इस जिंदगी मे 

सब कुछ जोड़ के चलता है 

दो जून की रोटी के खातिर


आदमी क्या है

टिमटिमाता जुगनू...? 

प्रकाश और अन्धकार के बीच 

उम्मीद की एक किरण जैसा 

जो सबको हौसला देता है 


आदमी क्या है 

बनावटी साँचा...? 

जो अपने गुस्से या प्रेम को 

बिना जाहिर किए हुए 

हर उम्मीद पे खरा उतरे


आदमी क्या है 

मूक दर्शक...? 

जो आवाज उठाना तो चाहता हो 

मगर अपनों को दलदल मे फंसता देख 

मौन धारण कर लेता है 


आदमी क्या है 

टूटी पगडंडी...? 

जिसका जर्रा जर्रा बिखर गया 

रिश्ते निभाते निभाते 

मगर लौटकर कोई आया नहीं 


आदमी क्या है 

ढलती शाम...? 

जिसने उगते सूरज का तेज भी देखा है 

भोर की लालिमा मे नहाया है 

मगर अब अंधेरे से मिलने को है 




Friday, February 18, 2022

लहू के दो रंग


 अब भी लहू के दो रंग, 

दिखते है मुझे इंसान मे

अब भी साजिश में शामिल गोडसे, 

कुछ अब भी शामिल गाँधी की हिंसा मे 


कुछ के ईश्वर हैं बापू,

कुछ गोडसे को सलामी देते हैं

ये मिली जुली सी फितरत लोगों की,

दोनों को बदनामी देते हैं 


ना गांधी ने कोई अनर्थ किया था,

ना गोडसे ने कद्दू मे तीर चलाया था

एक था अपनों के विश्वासघात का मारा,

एक को अपनों ने बरगलाया था 


एक नाम विश्व पटल पे था

एक का अपना ही संसार था

एक हिन्दू मुस्लिम मे भेद समझता,

एक का पूरा अपना परिवार था


अब कौन सही था कौन गलत

इस मुद्दे पर अलग अलग राय है

कोई कहता हिन्दू मुस्लिम हैं दुश्मन

कोई कहता भाई भाई हैं


गांधी ने मझधार मे छोड़कर

देश का बंटवारा होने दिया

गोडसे की गोली ने धधकती ज्वाला को

सुषुप्त अवस्था मे ही सोने दिया


अब किसके पक्ष मे खड़ा रहूं मैं

किसके खिलाफ कहूँ जंग है

अंतरात्मा तभी है कहती मेरी

अब भी लहू के दो रंग हैं