Tuesday, February 18, 2025

फिर श्रृंगार नहीं होता......

 

बिन शब्दों का कभी भी
वाक्य विस्तार नहीं होता
जैसे बिन खेवनहार के
भव सागर पार नहीं होता

ऊँचा कुल या ऊँची पदवी से
बिन रिश्ते व्यापार नहीं होता
गाँठ पड़े हुये रिश्तों में तो
पूर्ण अधिकार नहीं होता

झूठ, फरेब या लालच का
सदैव जय-जयकार नहीं होता
सच कष्टदायी जरूर होता है
मगर परिणाम बेकार नहीं होता

मन दुःखी और तन पीड़ित हो
फिर श्रृंगार नहीं होता
छालिया कितना भी शातिर हो
छल हर बार नहीं होता

पहली साजिश से सबक
अंतिम प्रहार नहीं होता
मात मिली हो जिस रिश्ते से
फिर उस रिश्ते को मन तैयार नहीं होता

कवि की कपोल कल्पनाओं में
पूर्ण सच्चाई का आधार नहीं होता
हर बात लिखी हो जो कोरे कागज पे
वैसा ही संसार नहीं होता ||


Thursday, January 2, 2025

करीब करीब सच...


 

बाहों में किसी के ख्वाबों मे कोई और है
गलती तेरी भी नहीं कमबख्त बेवफाई का ही दौर है
कैसे तू भी किसी एक की हो कर रह सकती है ताउम्र
कहां हुस्न पर इश्क की पाबंदियों का अब जोर है

इस स्टेपनी वाले ज़माने मे कहां गुजारा होगा एक बंदे से
तमाम खानदानो का घर चलता है इस बेवफाई के धंधे से
इश्क पे भारी पड़ने लगी है दौलत ए हुस्न की कालाबाजारी
जबरन खुद का ही घर जलाया जाता है नादां परिंदे से

जिसको तौला नहीं जा सकता उसे तौल रहे हैं लोग
चंद रुपयों के लिए खुद से भी झूठ बोल रहे है लोग
ना जाने कैसा दौर आ गया कमबख्त फरेबी लोगों का
इतिहास छोड़कर रिश्तों मे देख भूगोल रहे हैं लोग

झूठा साबित करने मे लगे हैं हर रिश्ते की तस्वीर को
मोहब्बत से भी ऊपर रखते हैं लोग जागीर को
पागल हुए फिरते हैं देखने को ताजमहल 'मगर'
कौन समझ पाया है यहाँ मुमताज की तकदीर को

यकीनन अब रांझा भी छोड़ सकता है हीर को
कोई क्यूँ सुनेगा अब बुल्लेशाह सरीखे फकीर को
सही गलत से क्या ही फरक पडता है किसी को यहां
जहां पवित्र आत्मा से ज्यादा तवज्जो मिलती हो शरीर को ||




Sunday, December 22, 2024

कल बहुत पछताओगे...


 नफ़रतों का दौर है साजिश के मुहल्ले मे

लूट की कमाई है बेईमानों के गल्ले मे

भूख से कराहते गरीब अपनी झोपड़ी में

सारी दौलत धरी पडी है अमीरों के पल्ले मे


भूख की आग से अधजला भिखारी है

वस्त्र विहीन पडी अर्द्ध मूर्छित नारी है

खिलोनों वाले हाथो मे तगार भरा तसला है

जाति धर्म आज भी सबसे बड़ी बिमारी है


एक है वो जो कुछ खरोंच से हैरान है

किसी की तपती ईट के भट्टे में जान है 

किसी की तो मिटती नहीं भूख दौलत की कभी 

कोई सौ रुपये के लिए भी यहां बहुत परेशान हैं 


मजबूर हर आदमी जर जर हालात है 

प्यादे भी देते कभी वजीर को मात है 

सिकंदर कितने ही समा गए इस मिट्टी मे 

फिर भी सर्वेसर्वा समझे खुद को एक जमात है 


गहराई नदी नालों का तो नाप लिया इंसान ने 

खुद की गहराई  नापने का ना कोई औजार है 

हर चीज करीब ले आयी विज्ञान की नई खोज ने 

बस अपनों को करीब रखने को ना कोई तैयार है 


मखमली बिस्तर के लिए नींद कहाँ से लाओगे 

मजलूम और बेसहारों को कब तक सताओगे

अंत मे सबकुछ यहां धरा का धरा रह जाना है 

कल खुद ही खुद के कर्मों पे तुम बहुत पछताओगे ||