आज हिसाब मांग रहीं हैं
मजबूरियों की फटी चादर से
परेशानियां झरोखों से झाँक रही हैं
कल के गुज़रे दिन सुहाने
आज जी का जंजाल बन रहीं हैं
कष्ट भरे इस अनचाहे सफर मे
दुखों से जिंदगी की ठन रही है
नाकामयाबी का सैलाब उठता हर रोज
मुश्किलों की आँधी उड़ा ले जाती खुशियों को
चंद बूँदों के लिए तरसती रेगिस्तान सी जिंदगी
फिर क्यूँ पहाड़ सी उम्र दे दी मनुष्यों को
भला होता चार लम्हा जीते मगर सुकून से
इन ग़मों के तूफान से टकराना ना होता
महलों के बजाय रहते बीहड़ो मे ही मगर
अनगिनत आशाओं के तले दबकर मर जाना ना होता ||