खोने को कुछ नहीं, पाने को पूरा आसमान पड़ा
व्याकुल विचलित एक शख्स, असमंजस में जो खड़ा
दोहरी मनोदशा पे शायद, हो रहा सवार है
कोई और नहीं साहिब, एक पढ़ा लिखा बेरोजगार है
एक उथल पुथल सोच में, निकला वो खुद की खोज में
रात रात भर जाग कर, दब चुका सपनों के बोझ में
भँवर से तो निकल आया, अब नौका पड़ी मझधार है
असहाय वो, देश का भविष्य, पढ़ा लिखा बेरोजगार है
मंजिल पाने को आतुर,अवसरों से कोसों दूर ...
आज नालायक हो गया, जो कल तक था घर का गुरूर
माथे पे शिकन की लकीर लिए, हालातों से लाचार है
किस्मत और दुनियाँ से लड़ता, पढ़ा लिखा बेरोजगार है
कागज की रद्दी सी अब, लगती दर्जनों डिग्रियाँ...
मंदिर मस्जिद में व्यस्त देश, रोजगार की किसे फिक्र यहाँ
वक्त का साथ भी छूटा सा लगे, उम्मींदों का हारा परिवार है
निराशा मे आशा को ढूंढता, पढ़ा लिखा बेरोजगार है
मनोबल टूटा कई दफा, अपनों के तिरस्कार से
निकम्मा, निठल्ला, क्या कुछ न सुना, सरे आम रिश्तेदार से।
फिर भी हौसले बांध, निसहाय संघर्षरत, तैयार है...
डगमगाते कदमों को संभालता, पढ़ा लिखा बेरोजगार है।
चाचा फूफा आयोग में नहीं, जीजा कोई न किसी विभाग में,
काबिलियत कम पड़ जाती, सिर चढ़ती भाई-भतीजावाद में...
कैसे कहूं क्या कुछ सहता है,ये तो बस एक सार है,
फिर भी सफलता की आश लगाए, हर पढ़ा लिखा बेरोजगार है।