मन करता है दूर कहीं
डूबते सूरज को देखूं
शांत बहते किसी सागर मे
एक कंकड़ तबीयत से फैंकू
कुछ पल छीन कर इस दुनिया से
खुद के पूरे कुछ ख्याब करूँ
मन करता है पंख फैलाकर
इस नीलगगन की सैर करूं
ये घुटन, पाबंदी और जिम्मेदारी
सब कुछ पल भर मे उतार दूँ
मन करता है सदियों की ज़िन्दगी
बस एक पल मे ही गूजार दूँ
अब कैसे बयां करूँ शब्दों में
कितना कुछ दबाया है मन मे
मन करता है लिखता जाऊँ
क्या क्या सहा है इस जीवन मे...
(हैरी)
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(१३-०५-२०२२ ) को
'भावनाएं'(चर्चा अंक-४४२९) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत-बहुत आभार
Deleteबहुत बढ़िया प्रिय हरीश।हर कोई अपने जीवन की आपाधापी से कुछ पल चुराकर अपने मन मुताबिक जीना चाहता है।यही मानव स्वभाव है।अच्छा लिखा है आपने।
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार mam. आप लोगों के प्रोत्साहन से ही लिखने की प्रेरणा मिलती है.
Deleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार mam
Deleteसहज,सरल मन की कोमल अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार आपका Mam
Deleteउलझनों में फंसा - दुविधाओ से घिरा मन
ReplyDeleteकुछ कुछ अपना सा लगता है ,
मैं और आप क्या आज हर इंसान कि यही व्यथा है ।
वास्तविक सार्थक सुन्दर रचना!
शुक्रिया जनाब...
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