तुम हो धूर्त, तुम हो ढीठ,
तुम हो श्वान के दुम की रीड़
तुम को समझाया लाख मगर
फिर भी गलतियाँ करते हो रिपीट (Repeat)
ना तुमको गुरुजी के छड़ी का भय
ना तुमको अपमान का संशय
हर वक़्त सजा की पंक्ति में खड़े
फिर क्यूँ न करते सत मार्ग को तय
शिक्षा तुमको लगती बोझ
मजबूरी मे ढोते बस्ते को रोज
बे मन से ग्रहण की गई शिक्षा
सिर्फ पैदा करती है संकोच
गर ध्यान से ज्ञान करो अर्जित,तो
विधुर से विद्वान बन जाते है
इस कालखण्ड के कर्म-चक्र से
सदियों तक यश ही पाते हैं
शिक्षा ही है जो ज्ञान दिलाती
इस भूमण्डल में सम्मान दिलाती
चहुमुखी व सम्पूर्ण विकास कर
जुगुनू सा प्रकाश फैलाती
तो करो परिश्रम बन जाओ अफसर
फिर नवराष्ट्र निर्माण करो योग्य बनकर
शिक्षा वो पाक साफ अमृत है
असमर्थ भी सक्षम हो जाता जिसको पीकर ||
ठेठ पहाड़ी चिट्ठा
"कविता कोई पेशा नहीं है, यह जीवन का एक तरीका है। यह एक खाली टोकरी है; आप इसमें अपना जीवन लगाते हैं और उसमें से कुछ बनाते हैं।"
Friday, March 14, 2025
शिक्षा : जीवन का आधार
Tuesday, February 18, 2025
फिर श्रृंगार नहीं होता......
बिन शब्दों का कभी भी
वाक्य विस्तार नहीं होता
जैसे बिन खेवनहार के
भव सागर पार नहीं होता
ऊँचा कुल या ऊँची पदवी से
बिन रिश्ते व्यापार नहीं होता
गाँठ पड़े हुये रिश्तों में तो
पूर्ण अधिकार नहीं होता
झूठ, फरेब या लालच का
सदैव जय-जयकार नहीं होता
सच कष्टदायी जरूर होता है
मगर परिणाम बेकार नहीं होता
मन दुःखी और तन पीड़ित हो
फिर श्रृंगार नहीं होता
छालिया कितना भी शातिर हो
छल हर बार नहीं होता
पहली साजिश से सबक
अंतिम प्रहार नहीं होता
मात मिली हो जिस रिश्ते से
फिर उस रिश्ते को मन तैयार नहीं होता
कवि की कपोल कल्पनाओं में
पूर्ण सच्चाई का आधार नहीं होता
हर बात लिखी हो जो कोरे कागज पे
वैसा ही संसार नहीं होता ||
Thursday, January 2, 2025
करीब करीब सच...
बाहों में किसी के ख्वाबों मे कोई और है
गलती तेरी भी नहीं कमबख्त बेवफाई का ही दौर है
कैसे तू भी किसी एक की हो कर रह सकती है ताउम्र
कहां हुस्न पर इश्क की पाबंदियों का अब जोर है
इस स्टेपनी वाले ज़माने मे कहां गुजारा होगा एक बंदे से
तमाम खानदानो का घर चलता है इस बेवफाई के धंधे से
इश्क पे भारी पड़ने लगी है दौलत ए हुस्न की कालाबाजारी
जबरन खुद का ही घर जलाया जाता है नादां परिंदे से
जिसको तौला नहीं जा सकता उसे तौल रहे हैं लोग
चंद रुपयों के लिए खुद से भी झूठ बोल रहे है लोग
ना जाने कैसा दौर आ गया कमबख्त फरेबी लोगों का
इतिहास छोड़कर रिश्तों मे देख भूगोल रहे हैं लोग
झूठा साबित करने मे लगे हैं हर रिश्ते की तस्वीर को
मोहब्बत से भी ऊपर रखते हैं लोग जागीर को
पागल हुए फिरते हैं देखने को ताजमहल 'मगर'
कौन समझ पाया है यहाँ मुमताज की तकदीर को
यकीनन अब रांझा भी छोड़ सकता है हीर को
कोई क्यूँ सुनेगा अब बुल्लेशाह सरीखे फकीर को
सही गलत से क्या ही फरक पडता है किसी को यहां
जहां पवित्र आत्मा से ज्यादा तवज्जो मिलती हो शरीर को ||
Sunday, December 22, 2024
कल बहुत पछताओगे...
लूट की कमाई है बेईमानों के गल्ले मे
भूख से कराहते गरीब अपनी झोपड़ी में
सारी दौलत धरी पडी है अमीरों के पल्ले मे
भूख की आग से अधजला भिखारी है
वस्त्र विहीन पडी अर्द्ध मूर्छित नारी है
खिलोनों वाले हाथो मे तगार भरा तसला है
जाति धर्म आज भी सबसे बड़ी बिमारी है
एक है वो जो कुछ खरोंच से हैरान है
किसी की तपती ईट के भट्टे में जान है
किसी की तो मिटती नहीं भूख दौलत की कभी
कोई सौ रुपये के लिए भी यहां बहुत परेशान हैं
मजबूर हर आदमी जर जर हालात है
प्यादे भी देते कभी वजीर को मात है
सिकंदर कितने ही समा गए इस मिट्टी मे
फिर भी सर्वेसर्वा समझे खुद को एक जमात है
गहराई नदी नालों का तो नाप लिया इंसान ने
खुद की गहराई नापने का ना कोई औजार है
हर चीज करीब ले आयी विज्ञान की नई खोज ने
बस अपनों को करीब रखने को ना कोई तैयार है
मखमली बिस्तर के लिए नींद कहाँ से लाओगे
मजलूम और बेसहारों को कब तक सताओगे
अंत मे सबकुछ यहां धरा का धरा रह जाना है
कल खुद ही खुद के कर्मों पे तुम बहुत पछताओगे ||
Tuesday, November 26, 2024
सन् सत्तावन के बाद....
क्या सन् सत्तावन के बाद किसी
सिहनी ने तलवार लिया नहीं कर मे
या माँ ने जननी बन्द कर दी
लक्ष्मीबाई अब घर-घर में
क्यों इतने कमजोर बेबस बन गये
क्या रक्त सूख गया काली के खंजर मे
क्यों लटक रहे कुछ फांसी के फंदे में
क्यों विलाप कर रही कुछ पीहर मे,
अरे इस देश मे तो देवियों पूजी जाती है,
फिर क्यूँ मृत लिपटी मिलती है चादर में
क्या आदिशक्ति भी शक्ति हीन हो गयी
या दानव शक्ति प्रबल हो गयी भूधर में
क्या कान्हा के सारे दाव-पेच फेल हो गये
या प्रभाव फीका हो गया महाकाल के जहर मे
या फिर कलयुग अपने चरम सीमा पे है.
क्या सब दैवीय शक्ति विलुप्त हो गये थे द्वापर मे
अगर नवरात्रि मानते है सब श्रद्धा से
फिर क्यूँ खुद की बेटी सहमी है डर मे
प्रश्नो के इस भंडार मे असमंजस
कहीं खुद का सिर ना दे मारूं पत्थर मे
सिहनी से उसका शावक चुरा ले
इतना साहस कहाँ से आ गया गीदड़ मे
श्रृंगार सारे छीन लिया बाहुबल को
वर्ना कभी शक्ति कोपले फूटते थे इस विरान बंजर में
हनुमान बन बैठे सभी शक्ति वाहिनियां
वर्ना कोई समुद्र अड़ंगा बनता ना डगर मे
अब कहाँ से ओयेगा शक्ति याद दिलाने जामवन्त
जो ला पायेगा बदलाव इनके तेवर मे
खुद की पहचान और अस्तित्त्व बनाये रखने को
नये प्राण फूकने होंगे इस तन जर्जर मे
उठा भाल तलवार कर विनाश शत्रुओं का
कब तक लिपटे रहोगी जेवर मे ||
Thursday, November 7, 2024
हया भी कोई चीज होती है...
अधोवस्त्र एक सीमा तक ही ठीक होती है
संस्कार नहीं कहते तुम नुमाइश करो जिस्म की
पूर्ण परिधान आद्य नहीं तहजीब होती है
नोच खाते हैं लोग आँखों से ही खुले कलित तन को
तभी कहावत मे भी बेटी बाप के लिए बोझ होती है
मैं कौन होता हूँ आपकी आजादी का हनन करने वाला
बस जानता हूं किसकी कैसी सोच होती है
कुछ दुष्ट तो पालने मे पडी बच्ची को भी नहीं छोड़ते
तू तो हरदम इन जानवरों के बीच होती है
तुझे खुद भी पता है हकीकत इस सभ्य समाज की
मंदिर मस्जिद मे बैठे आडंबरियो की तक सोच गलीच होती हैं
न मुझे न मेरी लेखनी को देखना हीन नज़रों से
हर मर्ज की न उपचार ताबीज़ होती है
कहीं टुकड़ों मे बिखरे न मिलों दुष्कर्म का शिकार होकर
तभी कह रहा हूं हया भी कोई चीज होती है ||
Friday, October 25, 2024
यूँ मर जाना ना होता...
आज हिसाब मांग रहीं हैं
मजबूरियों की फटी चादर से
परेशानियां झरोखों से झाँक रही हैं
कल के गुज़रे दिन सुहाने
आज जी का जंजाल बन रहीं हैं
कष्ट भरे इस अनचाहे सफर मे
दुखों से जिंदगी की ठन रही है
नाकामयाबी का सैलाब उठता हर रोज
मुश्किलों की आँधी उड़ा ले जाती खुशियों को
चंद बूँदों के लिए तरसती रेगिस्तान सी जिंदगी
फिर क्यूँ पहाड़ सी उम्र दे दी मनुष्यों को
भला होता चार लम्हा जीते मगर सुकून से
इन ग़मों के तूफान से टकराना ना होता
महलों के बजाय रहते बीहड़ो मे ही मगर
अनगिनत आशाओं के तले दबकर मर जाना ना होता ||
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इस वीभत्स कृत्य का कोई सार नहीं होगा इससे बुरा शायद कोई व्यवहार नहीं होगा तुम्हें मौत के घाट उतार दिया कुछ नीच शैतानों ने सिर्फ मोमबत्ती ...
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हया भी कोई चीज होती है अधोवस्त्र एक सीमा तक ही ठीक होती है संस्कार नहीं कहते तुम नुमाइश करो जिस्म की पूर्ण परिधान आद्य नहीं तहजीब होती है ...