Friday, December 5, 2025

उजड़ा आशियाना ( प्रकृति की मार)


मलबे के ढेर पर बैठा, वो अपना सब कुछ खोकर,
छिपा लिया है चेहरा हाथों में, शायद जी भर रोकर।
कल तक जो एक हँसता-खेलता घर था,
आज वो बस टूटी लकड़ियों और कीचड़ का मंज़र था।

तिनका-तिनका जोड़कर, उम्र भर जो गृहस्थी सजाई थी,
कुदरत के एक कहर ने, पल भर में सब मिटाई थी।
जिन दीवारों में गूँजती थी कभी अपनों की किलकारी,
वहाँ आज पसरी है बस ख़ामोशी और लाचारी।

मिट्टी में सने वो हाथ, जो कभी मेहनत से ना थकते थे,
आज अपनी ही बर्बादी के टुकड़े समेटने को तरसते थे।
आँखों से बहते आँसू, अब सूखकर पत्थर हो गए,
सपने जो देखे थे कल, वो इस सैलाब में कहीं खो गए।

सामने लगा ‘राहत शिविर’ का बोर्ड उसे चिढ़ाता है,
अपने ही घर का राजा, आज भिखारी नज़र आता है।
यह सिर्फ मकान नहीं टूटा, एक इंसान का हौसला टूटा है,
कुदरत, तेरे खेल ने आज फिर एक गरीब का घर लूटा है।







Friday, November 28, 2025

मरने से पहले...





कुछ समेट लूँ पंक्तियों में, अल्फ़ाज़ बिखरने से पहले,
क्या दो-चार दिन जी लूँ मैं भी, यूँ ही मरने से पहले।

मेरी तो रूह तलक काँप जाती है, किसी और को सोच के भी,
क्या उसके कदम नहीं डगमगाए होंगे, दग़ा करने से पहले।

अब किससे कहूँ — इन ज़ख़्मों को रफ़ू कर दे लफ़्ज़ों से,
मैं दर्द की हर इन्तहा देखना चाहता हूँ, हद से गुज़रने से पहले।

अब धीरे-धीरे साँसें भी भरने लगी हैं ज़हर मुझमें,
मैं सब कुछ समेटना चाहता हूँ, फिर से बिखरने से पहले।

तुम यक़ीन करो या ना करो मेरी हाल-ए-दिली दास्तानों पर,
मैं सब कुछ उड़ेलना चाहता हूँ, बेख़ौफ़ भरने से पहले।

एक रोज़ आएगा, तुम भी तड़पोगे किसी अज़ीज़ के लिए,
तब समझोगे, क्या होता है — हज़ार बार मरना, मरने से पहले।

आज मैं हूँ, तो सब कुछ मेरी ही ग़लती लगती होगी तुम्हें,
कभी मेरी हालत देखी थी तुमने — यूँ सँवरने से पहले?

ये बिखरे ख़्वाब, ये गलीच लहजा, सब तेरी इनायत हैं,
मेरा दिल भी पाक-साफ़ था, तेरे दिल में ठहरने से पहले।

अब और लिखूँगा तो कलम भी रो पड़ेगी मेरे हालात पर,
तेरा एक आँसू तक ना गिरा — मेरी ख़ुशियाँ हरने से पहले।

दो-चार दिन और दिखेगी मेरी सूरत तेरे मोहल्ले में,
मैं बस एक बार जी भर के देखना चाहता हूँ — तुझे, बिछड़ने से पहले। 🌙







Saturday, November 15, 2025

“रघुवंश की मर्यादा की कथा”



अयोध्या की धूल में छिपा स्वर्णिम गौरव काल,
हर कण में गूँजता इक्ष्वाकु का प्रतिपाल।
मंत्रों की धार तले जला मर्यादा का दीप,
जहाँ सत्य था राज्य, और धर्म था संगीत।

सगर की तपस्या ने नभ को किया प्रकाशमान,
भगीरथ के मौन में बहा गंगा का उफान।
दशरथ हुए प्रहरी सत्य और धर्म के,
रघुवंश चमका जैसे सूरज के कर्म से।

रघुकुल का तेज था किरणों का आलोक,
वचन के आगे जीवन था उनका संयोग।
वहीं से जन्मे राम — मर्यादा के पर्याय,
धर्म की मशाल बने, स्नेह के स्वर्णिम अध्याय।

है वेदों की वाणी में गूँजते उनके नाम,
पुरखों की तप में बसता आत्मा का धाम।
सगर का बल, भगीरथ की विनम्र आराधना,
हर राजा में झलकी उनकी ही साधना।

जब त्रेता में अधर्म का जाल फैला चहुँओर,
धरती पुकार उठी — “हे विष्णु! अब धरो भोर।”
अवध में जन्मे राम — करुणा के सागर,
सत्य का परचम थामे, हर तम को किया निराधार।

जनकपुरी की माटी ने सीता का रूप सँवारा,
धरती की पुत्री थी — धैर्य का उजियारा।
वनपथ की धूल में भी इतिहास चला,
जहाँ प्रेम और त्याग का दीप पुनः जला।

राम में था दशरथ का संयम महान,
सगर का साहस, भगीरथ का ध्यान।
जनक का वैराग्य, विश्व का उपदेश,
मर्यादा में बँधा था परमात्मा का भेष।

आज भी जब कोई सत्य के लिए लड़े,
अधर्म के विरुद्ध अडिगता से रहे खड़े।
तो लगता है — त्रेता फिर लौट आई है,
राम की मर्यादा फिर जगमगाई है

जय श्रीराम 🙏