Sunday, August 31, 2025
सर्वधर्म समभाव...
Monday, August 25, 2025
अँधेरे के सौदागर
ऐ मुन्शी, जाकर कह दो ठेकेदार से,
क्यों सघन अंधेरा छाया है बस्ती में?
क्यों लोग आतुर हैं, खाने को अपनों को ही,
क्या सच में बदल गई है दुनिया नरभक्षी में?
उसी के हिस्से आया था ठेका शायद —
हर कोना शहर का रोशन करने का,
फिर क्यों बुझा दिए लालटेन हर घर के?
नहीं सोचा अंजाम, बूढ़ी आँखों को नम करने का?
ऐ ठेकेदार! मत भर झोली इतनी,
कि बोझ तले तू खुद ही दब जाए।
मुन्शी कहीं तेरा ही बनकर विभीषण,
तेरी काली कमाई को न उजागर कर जाए।
तू सिर्फ धर्म का ठेकेदार है, या
मंदिर-मस्जिद पे भी बोली लगाता है?
या फिर धर्म की इस बँटी बस्ती में
सिर्फ खून की होली मनाता है?
कौन जाति-धर्म का बना है रक्षक तू?
किसने ठेका दिया है आवंटन का?
कैसे भर देता है नफरत रगों में —
क्या तनिक भी खौफ नहीं तुझे भगवन का?
जिसके इशारों पे चलती है कायनात,
उसी को बांटने का तूने काम ले लिया!
अपने फायदे को झोंक दिया पूरा शहर,
और नारों में उसका नाम ले लिया!
अब बंद कर ये धर्म की दलाली,
इस देश को चैन की साँस लेने दे।
मत बरगला युवाओं को झूठे नारों से —
इस बेवजह की क्रांति को अब रहने दे।
जला कर बस्तियाँ रोशनी का ठेका लिया है,
कब तक कफन का सौदा करेगा?
इंसान के कानून से तू बेखौफ है,
क्या दोज़ख की आग से भी न डरेगा?
चल, अब अमन का सौदा कर,
शांति का बन जा तू सौदागर।
विश्व बंधुत्व के जुगनुओं से,
हर घर में फिर उजाला कर
हर घर मे फिर उजाला कर ||
Tuesday, August 19, 2025
कहाँ गए वो दिन?
कब तलक मन को समझाएँ,
अब कहाँ वो बात रही।
ना छाँव शिवालयी बरगद की,
ना रिश्तों की सौगात रही।
अंतर्देशी पर चिट्ठी ना आती,
बस मोबाइल की टन-टन है।
बातों में अब रस न बचा,
सब दिखावा, सब बेमन है।
गाँव के हाट-बाज़ार बिसरे,
मंडी अब मॉल बन गई।
गुड़ की मिठास ढूँढे को तरसे,
रिश्तों की हँसी मखौल बन गई।
कंधे पे चढ़ तारे देखते थे,
अब स्क्रीन में दिन-रात ढले।
खेल-खिलौना भूल गए बालक,
फोन की गिरफ्त में हर पल रहे।
ना चौपाल, ना बिरादरी बैठकी,
बस सोशल मीडिया की है मंडी।
मन कहे “चल जी ले थोड़ी देर”,
पर लाइक-कमेंट ही बन गई ज़िंदगी।
कहाँ गए वो धूल-धक्कड़ दिन,
जहाँ हर जख्म में माटी थी।
अब तो हर दर्द मे अस्पताल पहुचते,
पहले दादी ही मरहम लगाती थी।
उम्र बढ़ी तो ख्वाहिशें सिकुड़ीं,
जिम्मेदारी भारी, खुशियाँ भी बिखरीं।
रिश्ते छूटे, नाते बिसरे,
जीने की चाह भी धीरे-धीरे मुरझा सी गई।
फिर भी उम्मीद का दीप जलाए,
मन कहता है—“वो दिन लौटेंगे कभी।”
जहाँ मेल-जोल ही दौलत होगा,
और रिश्ते की अहमियत समझेंगे सभी।।
Thursday, August 14, 2025
आज हुए थे दो टुकड़े (14 August)
न सिर्फ़ ज़मीन के,
बल्कि सदियों से जुड़े रिश्तों के भी।
एक तरफ़ भारत, एक तरफ़ पाकिस्तान—
पर दर्द तो दोनों का एक ही था,
बस आँसू सरहद के आर-पार
अलग-अलग बहने लगे थे।
वो सरहद, जो नक्शे पर खींची गई थी,
हमारे आँगन से गुज़री—
जहाँ कभी बच्चे बिना नाम पूछे खेलते थे,
आज पहचान पूछकर बात करते हैं।
लाहौर की गलियों में जो ख़ुशबू थी,
वो दिल्ली के हवाओं में भी थी,
आज वही हवाएँ
बारूदी धुएँ से भरी हुयी है।
माँ ने बेटे को अमृतसर से कराची जाते देखा,
बेटी ने बाप को ढाका से दिल्ली आते देखा—
और दोनों ने यही सोचा,
क्या अब कभी मिलना होगा?
मस्जिद की अज़ान, मंदिर की घंटी,
गुरुद्वारे का शबद—
जो एक साथ गूंजते थे,
अब सरहद की दीवारों में कैद हैं।
वैसे तो घड़ी आजादी के जश्न का था...
पर सच ये भी था कि इंसानियत
भारत-पाकिस्तान दोनों में
लहूलुहान होकर गिर गई थी।
आज हुए थे दो टुकड़े,
पर सच तो ये है—
ज़ख़्म अब भी एक ही हैं,
बस सीने अलग-अलग कर दिए गए।
Wednesday, August 6, 2025
अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है..
बूँद-बूँद में डर बहता है।
हरियाली की सांसों में भी,
धीमा-धीमा ज़हर रहता है।
चिड़ियों की चहकें सहमी हैं,
पेड़ लगे हैं जैसे रोने।
धरती की धड़कन डगमग सी,
लगी है फूलों की लाली खोने।
सदियाँ जो थीं माँ की गोदी सी,
अब अंगारों मे बदलने लगी है...
अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है।
नदियाँ मरती जाती हैं अब,
प्यास बुझाना भूल गई हैं।
मछलियाँ अब जलक्रीड़ा नहीं करती,
नदियाँ बाँध में डूब गई हैं।
कछुए, बगुले, बेकसूर बतख,
सब निर्वासन झेल रहे हैं।
धूप भरी है झीलों में अब,
घोंसले भी अंडों को धकेल रहे हैं।
सिकुड़ गए हैं बादल सारे,
अब बारिश तूफान मे ढ़लने लगी है...
अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है।
गगन चीरते लोहे जैसे
पेड़ों की शाखें टूट रही है
बादल भी बिन पानी भटकते अब
बेज़ान सी ज़मीं सूख रहीं हैं।
ओज़ोन का आँचल फटा है,
चाँद नहीं अब सुकून देता है ।
तारों की चुप्पी बतलाती
विनाश को आज्ञा कौन देता है ।
सृष्टि थक कर बैठ गई है,
अब सृजन विनाश मे बदलने लगी है
अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है।
क़सूर किसका पूछ रहे हो,
आईना थामो — देखो खुद को।
हमने ही बोया था ज़हर,
क्यूँ आरोप लगाते हो रुत को।
प्लास्टिक की साँसों से हमने,
धरती की धड़कन को रोका है
विकास के नाम पे लूटी वन सम्पदा,
जो विकास नहीं एक धोखा है।
अब याचना से कुछ न होगा,
जब बद्दुआ चुपके से पलने लगी है...
अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है।
अब भी वक़्त है लौट चलें हम,
बीज नई सोच के बोएँ।
पत्तों से फिर प्रार्थना हो,
धरती का जीवन संजोए ।
धरती माँ की मौन व्यथा को
गीतों में फिर ढालें प्यारे।
पेड़ उगें, छाँवें बरसें,
खेत खुले फिर नदियाँ पुकारें।
नतमस्तक हों प्रकृति के आगे
क्योंकि प्रकृति विनाश की ओर चलने लगी है
अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है
अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है......
-
हया भी कोई चीज होती है अधोवस्त्र एक सीमा तक ही ठीक होती है संस्कार नहीं कहते तुम नुमाइश करो जिस्म की पूर्ण परिधान आद्य नहीं तहजीब होती है ...
-
मैं मिलावटी रिश्तों का धंधा नहीं करता बेवजह किसी को शर्मिदा नहीं करता मैं भलीभाँति वाकिफ हूँ अपने कर्मों से तभी गंगा मे उतर कर उसे गंदा...