मलबे के ढेर पर बैठा, वो अपना सब कुछ खोकर,
छिपा लिया है चेहरा हाथों में, शायद जी भर रोकर।
कल तक जो एक हँसता-खेलता घर था,
आज वो बस टूटी लकड़ियों और कीचड़ का मंज़र था।
तिनका-तिनका जोड़कर, उम्र भर जो गृहस्थी सजाई थी,
कुदरत के एक कहर ने, पल भर में सब मिटाई थी।
जिन दीवारों में गूँजती थी कभी अपनों की किलकारी,
वहाँ आज पसरी है बस ख़ामोशी और लाचारी।
मिट्टी में सने वो हाथ, जो कभी मेहनत से ना थकते थे,
आज अपनी ही बर्बादी के टुकड़े समेटने को तरसते थे।
आँखों से बहते आँसू, अब सूखकर पत्थर हो गए,
सपने जो देखे थे कल, वो इस सैलाब में कहीं खो गए।
सामने लगा ‘राहत शिविर’ का बोर्ड उसे चिढ़ाता है,
अपने ही घर का राजा, आज भिखारी नज़र आता है।
यह सिर्फ मकान नहीं टूटा, एक इंसान का हौसला टूटा है,
कुदरत, तेरे खेल ने आज फिर एक गरीब का घर लूटा है।
Friday, December 5, 2025
उजड़ा आशियाना ( प्रकृति की मार)
Friday, November 28, 2025
मरने से पहले...
कुछ समेट लूँ पंक्तियों में, अल्फ़ाज़ बिखरने से पहले,
क्या दो-चार दिन जी लूँ मैं भी, यूँ ही मरने से पहले।
मेरी तो रूह तलक काँप जाती है, किसी और को सोच के भी,
क्या उसके कदम नहीं डगमगाए होंगे, दग़ा करने से पहले।
अब किससे कहूँ — इन ज़ख़्मों को रफ़ू कर दे लफ़्ज़ों से,
मैं दर्द की हर इन्तहा देखना चाहता हूँ, हद से गुज़रने से पहले।
अब धीरे-धीरे साँसें भी भरने लगी हैं ज़हर मुझमें,
मैं सब कुछ समेटना चाहता हूँ, फिर से बिखरने से पहले।
तुम यक़ीन करो या ना करो मेरी हाल-ए-दिली दास्तानों पर,
मैं सब कुछ उड़ेलना चाहता हूँ, बेख़ौफ़ भरने से पहले।
एक रोज़ आएगा, तुम भी तड़पोगे किसी अज़ीज़ के लिए,
तब समझोगे, क्या होता है — हज़ार बार मरना, मरने से पहले।
आज मैं हूँ, तो सब कुछ मेरी ही ग़लती लगती होगी तुम्हें,
कभी मेरी हालत देखी थी तुमने — यूँ सँवरने से पहले?
ये बिखरे ख़्वाब, ये गलीच लहजा, सब तेरी इनायत हैं,
मेरा दिल भी पाक-साफ़ था, तेरे दिल में ठहरने से पहले।
अब और लिखूँगा तो कलम भी रो पड़ेगी मेरे हालात पर,
तेरा एक आँसू तक ना गिरा — मेरी ख़ुशियाँ हरने से पहले।
दो-चार दिन और दिखेगी मेरी सूरत तेरे मोहल्ले में,
मैं बस एक बार जी भर के देखना चाहता हूँ — तुझे, बिछड़ने से पहले। 🌙
Saturday, November 15, 2025
“रघुवंश की मर्यादा की कथा”
जय श्रीराम 🙏
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मैं कब कहाँ क्या लिख दूँ इस बात से खुद भी बेजार हूँ मैं किसी के लिए बेशकीमती किसी के लिए बेकार हूँ समझ सका जो अब तक मुझको कायल मेरी छवि का...
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मैं मिलावटी रिश्तों का धंधा नहीं करता बेवजह किसी को शर्मिदा नहीं करता मैं भलीभाँति वाकिफ हूँ अपने कर्मों से तभी गंगा मे उतर कर उसे गंदा...




