घर छोड़ा,परिवार छोड़ा,
छोड़ के अपने गाँव को
भाई बहिनों का साथ छोड़ा और
उस पीपल की छाँव को
माँ के हाथ का खाना छोड़
हर खुशी को तरसता जरूर हूँ
हाँ, मैं एक मजदूर हूँ....
चंद रुपया कमाने के खातिर
और भरपेट खाने को
बहुत पीछे छोड़ आया हूँ
अपने खुशियों के जमाने को
कुछ कमाने तो लग गया हूँ मगर
घर से बहुत दूर हूँ
हाँ, मैं एक मजदूर हूँ...
किसको अच्छा लगता है साहब
अपनों से बिछड़ने मे
मीलों दूर परदेश मे रहकर
खुद ही किस्मत से लड़ने में
कहीं हालातों का मारा हूँ
कभी भूख से मजबूर हूँ
हाँ, मैं एक मजदूर हूँ...
बेहद बेबस कर देती है,
भूख मुझसे बेचारों को
वरना दूर कभी न भेजती
माँ अपनी आंखों के तारों को
हारा नहीं हूँ अभी भी मैं
हौसले से भरपूर हूँ
कई दिनो का भूखा प्यासा
हाँ, मैं एक मजदूर हूँ....
अत्यंत र्मस्पर्शी.... 💕
ReplyDeleteThank you
DeleteAwsm
ReplyDeleteThank you
Deleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteसादर आभार 🙏
Deleteमज़दूरों की लाचार फटेहाल ज़िंदगी की मार्मिक अभिव्यक्ति!!!!
ReplyDeleteThank you sir
DeleteBht he lajawab
ReplyDeleteधन्यवाद
DeleteThanks
ReplyDeleteSachchai aaj keep samay ki. Bahut khub
ReplyDeleteआभार
DeleteSuprb👍
ReplyDeleteThank you
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ReplyDeleteHeart touchable poetry
Thank you
DeleteHeart touching 😌
ReplyDeleteThank you again
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