करके हुताशन के हवाले अरण्य को
निर्झरणी के तलाश मे जाता मनुज है
पवन जलधर को कर वेग प्रवाहित
उम्मीद की रश्मि को अम्बर ले जाता है
वसुधा तरस रहीं सलिल बिन
पुरंदर से लगाए आस है मधुपति भी
वाटिका, सरोज, प्रसून और तरिणी
चक्षु जोह रहे हैं पयोधर के
अंबिका को ही बनकर भुजंग
नर अनल के विशिख छोड़ रहा
महि चपला सी चंचलित होकर
सारे सब्र के बाँध को तोड़ रहीं
प्रलय को जन्म दे रहे फिर
देवनदी, कालिंदी, सरिता और रत्नाकर
भयभीत सभी हैं आभास से विनाश के
थर थर काँप रहे हैं अडिग भूधर
नतमस्तक होकर साष्टांग दण्डवत
कर जोड़े ग़र याचक बनकर
अब भी तरु अंकुरित हो सकते हैं
भव सब विष हर लेंगे फिर से रक्षक बनकर ||
नतमस्तक होना चाहिए l सुन्दर रचना l
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार गुरुजी
Deleteसचमुच अभी भी देर नहीं हुई है मनुज सचेत तो हो पर.. अगर हम अब भी नहीं सुधरे तो .प्रकृति के कोप से बच पाना मुश्किल है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना ,भाव शब्द शिल्प मन भावन है।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १६ जनवरी २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार महोदया मेरी रचना को आज के अंक में शामिल करने के लिए 🙏
Deleteबेहतरीन
ReplyDeleteसादर
बहुत बहुत आभार 🙏
Deleteबेहतरीन सृजन!
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया 🙏
Deleteसोचने को विवश करती है रचना ... कब तक, कब तक ...
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार 🙏
Deleteसार्थक लेखन
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार महोदया 🙏
Deleteसुन्दर शब्द-विन्यास.., सार्थक सृजन ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार 🙏
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