Tuesday, February 18, 2025

फिर श्रृंगार नहीं होता......

 

बिन शब्दों का कभी भी
वाक्य विस्तार नहीं होता
जैसे बिन खेवनहार के
भव सागर पार नहीं होता

ऊँचा कुल या ऊँची पदवी से
बिन रिश्ते व्यापार नहीं होता
गाँठ पड़े हों रिश्तों में तो
पूर्ण अधिकार नहीं होता

झूठ, फरेब या लालच का
सदैव जय-जयकार नहीं होता
सच कष्टदायी जरूर होता है
मगर परिणाम बेकार नहीं होता

मन दुःखी और तन पीड़ित हो
फिर श्रृंगार नहीं होता
छालिया कितना भी शातिर हो
छल हर बार नहीं होता

पहली साजिश से सबक
अंतिम प्रहार नहीं होता
मात मिली हो जिस रिश्ते से
फिर उस रिश्ते को मन तैयार नहीं होता

कवि की कपोल कल्पनाओं में
पूर्ण सच्चाई का आधार नहीं होता
हर बात लिखी हो जो कोरे कागज पे
वैसा ही संसार नहीं होता ||


9 comments:

  1. क्या बात ... सच में संसार बाह्यत जुदा है ... हर किसी का अपना है ...

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  2. यार, ये कविता पढ़कर ऐसा लगा जैसे किसी ने जीवन की सच्चाईयों को बहुत ही साफ़ और सीधे तरीके से बताया हो। मुझे सबसे अच्छा लगा कि लेखक ने झूठ, फरेब और लालच की बात करते हुए सच के महत्व को इतनी सहजता से पेश किया। सच में, दुनिया और रिश्ते किताबों या कागजों की तरह नहीं चलते, हमें अपनी समझ और विवेक से हर कदम उठाना पड़ता है।

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