Tuesday, August 19, 2025

कहाँ गए वो दिन?


 

कब तलक मन को समझाएँ,

अब कहाँ वो बात रही।

ना छाँव शिवालयी बरगद की,

ना रिश्तों की सौगात रही।


अंतर्देशी पर चिट्ठी ना आती,

बस मोबाइल की टन-टन है।

बातों में अब रस न बचा,

सब दिखावा, सब बेमन है।


गाँव के हाट-बाज़ार बिसरे,

मंडी अब मॉल बन गई।

गुड़ की मिठास ढूँढे को तरसे,

रिश्तों की हँसी मखौल बन गई।


कंधे पे चढ़ तारे देखते थे,

अब स्क्रीन में दिन-रात ढले।

खेल-खिलौना भूल गए बालक,

फोन की गिरफ्त में हर पल रहे।


ना चौपाल, ना बिरादरी बैठकी,

बस सोशल मीडिया की है मंडी।

मन कहे “चल जी ले थोड़ी देर”,

पर लाइक-कमेंट ही बन गई ज़िंदगी।


कहाँ गए वो धूल-धक्कड़ दिन,

जहाँ हर जख्म में माटी थी।

अब तो हर दर्द मे अस्पताल पहुचते,

पहले दादी ही मरहम लगाती थी।


उम्र बढ़ी तो ख्वाहिशें सिकुड़ीं,

जिम्मेदारी भारी, खुशियाँ भी बिखरीं।

रिश्ते छूटे, नाते बिसरे,

जीने की चाह भी धीरे-धीरे मुरझा सी गई।


फिर भी उम्मीद का दीप जलाए,

मन कहता है—“वो दिन लौटेंगे कभी।”

जहाँ मेल-जोल ही दौलत होगा,

और रिश्ते की अहमियत समझेंगे सभी।।


4 comments:

  1. अतिसुंदर कृति 🥰🥰🥰🥰

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  2. वाह, शब्दों से पुरानी सादगी महसूस हो गयी🙏

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  3. Waah bahut sundar kavita ❤️

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