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Sunday, August 31, 2025

सर्वधर्म समभाव...

 


नसों में बहते लहू से क्या पहचान पाओगे धर्म को,
सबसे ऊपर रखना चाहिए इंसान को अपने कर्म को।

मंदिर में जो दीप जले, मस्जिद में हो जो अज़ान,
गुरुद्वारे की अरदास गूंजे, चर्च में उठे स्तुतिगान।

सभी इबादत एक सी हैं, सबका है बस मर्म यही,
इंसान की सेवा से बढ़कर कुछ भी है धर्म नही।

हवा सभी को मिलती है, जल सबको देता जीवन,
सूरज की किरणें पूछतीं नहीं, किस मज़हब का है तन।

दीवारों के साए में क्यों, नफ़रत के बीज उगाते हो?
इंसान हो जब पैदा होते, फिर क्यों धर्म बतलाते हो?

राहें चारों चाहे अलग हों, मंज़िल मगर एक है,
प्रेम, करुणा, भाईचारा— यही तो चाहता हरएक है।

तोड़ो नफ़रत की बेड़ियाँ, खोलो इंसानियत के द्वार,
धर्म वही जो जोड़ सके सब, बांटे केवल प्यार।|