कुछ समेट लूँ पंक्तियों में, अल्फ़ाज़ बिखरने से पहले,
क्या दो-चार दिन जी लूँ मैं भी, यूँ ही मरने से पहले।
मेरी तो रूह तलक काँप जाती है, किसी और को सोच के भी,
क्या उसके कदम नहीं डगमगाए होंगे, दग़ा करने से पहले।
अब किससे कहूँ — इन ज़ख़्मों को रफ़ू कर दे लफ़्ज़ों से,
मैं दर्द की हर इन्तहा देखना चाहता हूँ, हद से गुज़रने से पहले।
अब धीरे-धीरे साँसें भी भरने लगी हैं ज़हर मुझमें,
मैं सब कुछ समेटना चाहता हूँ, फिर से बिखरने से पहले।
तुम यक़ीन करो या ना करो मेरी हाल-ए-दिली दास्तानों पर,
मैं सब कुछ उड़ेलना चाहता हूँ, बेख़ौफ़ भरने से पहले।
एक रोज़ आएगा, तुम भी तड़पोगे किसी अज़ीज़ के लिए,
तब समझोगे, क्या होता है — हज़ार बार मरना, मरने से पहले।
आज मैं हूँ, तो सब कुछ मेरी ही ग़लती लगती होगी तुम्हें,
कभी मेरी हालत देखी थी तुमने — यूँ सँवरने से पहले?
ये बिखरे ख़्वाब, ये गलीच लहजा, सब तेरी इनायत हैं,
मेरा दिल भी पाक-साफ़ था, तेरे दिल में ठहरने से पहले।
अब और लिखूँगा तो कलम भी रो पड़ेगी मेरे हालात पर,
तेरा एक आँसू तक ना गिरा — मेरी ख़ुशियाँ हरने से पहले।
दो-चार दिन और दिखेगी मेरी सूरत तेरे मोहल्ले में,
मैं बस एक बार जी भर के देखना चाहता हूँ — तुझे, बिछड़ने से पहले। 🌙
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Friday, November 28, 2025
मरने से पहले...
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