Tuesday, March 5, 2024

अब सीता की बारी है...


 कहाँ त्रेता द्वापर के बंधन मे

बंधने वाली ये नारी है

कल युद्ध लड़ा था श्रीराम ने

अब सीता की बारी है

हर युग मे प्रभु नहीं आयेंगे 

त्रिया स्वाभिमान बचाने को 

बनो सुदृढ़ कर लो बाजुओं को सख्त

तैयार रहो हथियार उठाने को

तुमको ही करनी है फतह 

लंका और कुरुक्षेत्र भी

मौन ही रहने दो बनकर धृतराष्ट्र समाज को

कितने जन्म लेंगे त्रि नेत्र भी

न कोई रावण न कोई दुशासन

टिक पाएगा तेरे प्रहार से

कब तक विनय करके मांगेगी

हक जड़ अधिकाय संसार से

हाथ बढ़े जो चीर हरण को

या सतित्व को ठेस पहुंचाने को

बन काली भर अग्नि हुंकार

रक्त रंजित नेत्र काफी है भू पटल हिलाने को



Wednesday, February 21, 2024

पर चूहे से भी डरती है..


 हवा से दोस्ती है उसकी

कलियों से बातेँ करती है

शेरनी सी छवि रखती है वो

पर, चूहे से भी डरती है


वाचाल है सबकुछ उगल देती

बातों को मन मे न रख पाती है

खुद ही खुद की खिल्ली उड़ाती

और जी भरकर हंस भी जाती है


अभी तो दुनियां देखी ही है

तजुर्बा फिर भी तमाम है

परिपूर्ण के करीब है अपने कार्यो मे

फिर भी बातों से लगती नादां है


जुड़ रहा उसकी जिंदगी मे

एक नया अध्याय है

वो परेशानी मे भी हँसा देती सबको

वो खुशियों की पर्याय है


खुशियाँ मिले तमाम उसको

घर परिवार मे भी खुशहाली हो

सपने उसके हो सब पूरे

वो परिवार की अंशुमाली हो ||



Sunday, January 14, 2024

हुताशन के हवाले अरण्य..


               करके हुताशन के हवाले अरण्य को

निर्झरणी के तलाश मे जाता मनुज है

पवन जलधर को कर वेग प्रवाहित

उम्मीद की रश्मि को अम्बर ले जाता है


वसुधा तरस रहीं सलिल बिन

पुरंदर से लगाए आस है मधुपति भी

वाटिका, सरोज, प्रसून और तरिणी

चक्षु जोह रहे हैं पयोधर के


अंबिका को ही बनकर भुजंग

नर अनल के विशिख छोड़ रहा

महि चपला सी चंचलित होकर

सारे सब्र के बाँध को तोड़ रहीं


प्रलय को जन्म दे रहे फिर

देवनदी, कालिंदी, सरिता और रत्नाकर

भयभीत सभी हैं आभास से विनाश के

थर थर काँप रहे हैं अडिग भूधर


नतमस्तक होकर साष्टांग दण्डवत

कर जोड़े ग़र याचक बनकर

अब भी तरु अंकुरित हो सकते हैं

भव सब विष हर लेंगे फिर से रक्षक बनकर ||



Sunday, December 17, 2023

हार कर फांसी पे चढ़ गया...

 

बेरोजगार मेरे राज्य का, काँच सा बिखर गया 

इम्तिहान देना चाहे मगर, घोटालों से डर गया

नियुक्तियां सारी नेता के, रिश्तेदार ऐसे खा गए 

जैसे पालक की बेड़े को, खुला सांड कोई चर गया 


विज्ञप्तियों के इंतजार मे, चश्मे का नंबर बढ़ गया 

प्रतिस्पर्धा के दौड़ मे, वो खुद से ही पिछड़ गया 

सोचा था पहाड़ रहकर, खुद का गाँव घर सुधारेंगे 

मगर उसका हर ख्वाब, राजनीति के दलदल मे गड़ गया 


फिर भी जुटा के हौसला, परिस्थितियों से वो है लड़ गया 

ना वक़्त ने साथ दिया, और अपनों से भी बिछड़ गया 

अब नाकामियाँ मजबूर यूँ, हारने को उसे कर रहीं 

जैसे बिन पका फल, डाली ही पर हो सड़ गया 


दीमक लग रहीं प्रतिभा पर, दिमागी संतुलन भी बिगड़ गया 

फिर भी सफ़लता पाने को, वो किस्मत के आगे अड़ गया 

अंत मे हार कर जला दी सपने और सारी डिग्रियां 

फिर एक और बेरोजगार आज, हारकर फांसी पे चढ गया



Thursday, October 26, 2023

कविता स्पष्ट है बरदोश नहीं है..



कविता स्पष्ट है बरदोश नहीं है

अर्द्ध मूर्छित है मगर बेहोश नहीं है

जो चाहे जिस भाषा शैली में गड़े 

व्यंगात्मक हो सकती है मगर रूपोश नहीं है 


कोई तारीफ लिखे कोई नाकामियाँ 

कोई व्याकुलता कोई संतोष लिखे 

कोई अमन शांति का पैगाम दे  

कोई उबलते जज्बातों का आक्रोश लिखे 


कुछ लिखते हैं अनकहे जज्बातों को 

कुछ अपने व्यंग्य का सैलाब लिखे 

कुछ धरती के मनोरम सौंदर्य का करते वर्णन 

कुछ कटु वर्णो से तेजाब लिखे 


कुछ प्रेम का सुंदर आभास लिखते हैं 

कुछ दबे कुचले लोगों की आवाज लिखे 

कुछ लिखते हैं खामोशी आपातकाल की 

कुछ 1857 की क्रांति का आगाज लिखे 


हर कोई अपने तरीके से तोड़ मरोड़ कर 

नए रचनाओं से नए शब्दों को आयाम देते हैं 

कोई फैलाते है जहर दुनियाँ मे 

कोई हर ओर शांति का पैगाम देते हैं 


बहरे है लोग भले गूंगी सरकार चाहे 

जंग जारी है कवि खामोश नहीं है 

कितनी कर लो अवहेलना विरोध मे 

कविता स्पष्ट है बरदोश नहीं है ||

बरदोश = छुपी हुयी 

रूपोंश = भागा हुआ, 




Wednesday, October 11, 2023

कल तेरी भी बारी है...


                       करके खून पसीना एक

रिश्तों को जिसने सींचा है,

सहकर दुनियाभर की पीड़ा 

जिसने आंखों को मींचा है


तपती दुपहरी बिन चप्पल भी 

सातों भँवर वो घूम रहा है

चिंता मे व्याप्त रहता हरपल

ना एक पल का भी सुकून रहा है 


कौड़ी कौड़ी जोड़-जोड़कर 

जिनके ख्वाबों का आगाज़ किया है 

उसकी फटी एड़ियों का दर्द

उन सबने नजरअंदाज किया है


उसके फटे-पुराने कपड़े

उसकी मजबूरी दर्शाते हैं

जिसने बांँटा कौर भी खुद का 

लो अब उसी के लिए तरसाते हैं 


कितना खुदगर्ज हो रहा है इंसां

भुला बैठा जीवनदाता का उपकार 

बूढ़े माँ बाबा को समझे बोझ

बढ़कर पिल्लों को देता है प्यार 


आरंभ हो चुका है कलयुग, तम

धीरे-धीरे पैर पसार रहा है

पहले जड़ें जर्जर हुई नातों की

अब इंसानियत भी मार रहा है


कोई देश , कोई धर्म विरोधी

कहीं विरोध भाई–भाई का कर रहा है

समझ रहे हैं हम जहां की उन्नति

पर मेरी नजर में सब उजड़ रहा है।


क्या मोल है उस प्रगति का

जिसमें निज कुटुंब का भाव नहीं 

निष्ठुर वृक्ष वह है खजूर सम,

अपनत्व की शीतल छाँव नहीं 


दुःखी पड़ा है मनुज मुस्काता

तिस पर अंतर्मन में सुकून नहीं 

विरक्त हो चुकी रक्त वाहनियाँ 

अब किसी में पितृ सेवा का जुनून नहीं 


भूल चुका चरणों मे इनके

खुदा ने जन्नत न्यौछारी है

आज जैसा वह कर रहा है 

कल उसकी भी बारी है।।




Saturday, September 30, 2023

हाँ है वो मेरे लिए खास.....


                        हाँ है वो मेरे लिए खास

बेवजह खुश कभी बेवजह उदास

न दूरियाँ है दरमियाँ, न मिलन की है आस

न साथ मेरे रहती है फिर भी है आसपास

हाँ है वो मेरे लिए खास


कभी गुस्से मे मुँह फूला ले

कभी दुनियां तमाम का प्यार लुटा दे

कभी दिल के इमौज़ी संग संजोए नाम

कभी नंबर ही हटा दे

वो अजनबी है नहीं पल पल दिलाती है एहसास

हाँ है वो मेरे लिए खास


कभी उसकी नादानी मुझे

बचपन अपना याद दिलाते हैं

उसकी हंसी और गालों मे डिम्पल

ग़म जहान के सारे भुलाते हैं

रहती है कोशिश वो कभी, न हो मेरे हरकतों से निराश

हाँ है वो मेरे लिए खास


वो सच्ची है सोने सी खरी

वो साथी सखा राधा से बढ़कर

वो ग़म अपना छुपाना चाहती है

पर आंसू गिरते पलकों पे चढकर

जितना खुश वो मिलन से है, उतनी ही बिछड़ने से हताश

हाँ है वो मेरे लिए खास


संग साथ जो गुज़रे है वो

लम्हे ताउम्र रहेंगे साथ

शायद कल छूट जाए दामन

कैसे संभालेंगे ज़ज्बात

अब हमारे इस बेनाम रिश्ते का, गवाह होगा इतिहास

हाँ है वो मेरे लिए खास,

हाँ है वो मेरे लिए खास.....