वेतन बे वतन कर गई
अस्थायी ये नौकरी मेरी
ना जाने क्या क्या सितम कर गई
समय की परवाह बगैर
चाकी सा पिसता रहता हूं
वक्त से तालमेल बिठाने को
बे वक़्त घिसता रहता हूं
लहू मे भी घुल रहा
संघर्ष की अदृश्य गोलियाँ
बन रहा पाश्चात्य फिरंगी सा
भूल गया अपनी भाषा बोलियाँ
फिर भी कम लगती है उनको
मेरी मेहनत मजदूरियाँ
सल्फांस की गोलियाँ रखी है मगर
खाने नहीं देती मजबूरियाँ
नन्ही उम्र मे ही छोड़ आए थे
गाँव के चार चौपाल सब
अजनबी समझने लगे हैं
अपने ही बाल गोपाल अब
कमाई ने कम 'आय' ही दिया
सपनों मे संकट की बदली छा गई
अब किसको जा के बताऊँ 'जनाब'
तनख्वाह मेरी तन खा गई
वाह
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
Deleteहृदयस्पर्शी सृजन ।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 10 अप्रैल 2024को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
Deleteवाह
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
Deleteबेहतरीन
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
Deleteआहा ... बेहतरीन अंदाज़ है ...
ReplyDeleteकमाल की रचना ...
बहुत बहुत आभार गुरुदेव 🙏
DeleteBhot khub Bhaiya 🥳❤️ 🥰
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यावाद ❤️
Deleteअति सुन्दर बॉस
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
Deleteयार, ये कविता पढ़कर तो जैसे हर मेहनतकश इंसान का दर्द आँखों के सामने आ गया। तनख्वाह का नाम सुनते ही सबको उम्मीद होती है कि जिंदगी आसान होगी, लेकिन सच में वही तनख्वाह तन खा जाती है। गाँव छोड़कर शहर में पिसते रहना, वक्त और अपनी भाषा तक खो देना, ये हकीकत बहुत कड़वी है।
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