Wednesday, August 6, 2025

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है..


 अब अम्बर भी आग उगलता,

बूँद-बूँद में डर बहता है।

हरियाली की सांसों में भी,

धीमा-धीमा ज़हर रहता है।


चिड़ियों की चहकें सहमी हैं,

पेड़ लगे हैं जैसे रोने।

धरती की धड़कन डगमग सी,

लगी है फूलों की लाली खोने।


सदियाँ जो थीं माँ की गोदी सी, 

अब अंगारों मे बदलने लगी है... 

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है।


नदियाँ मरती जाती हैं अब,

प्यास बुझाना भूल गई हैं।

मछलियाँ अब जलक्रीड़ा नहीं करती,

नदियाँ बाँध में डूब गई हैं।


कछुए, बगुले, बेकसूर बतख,

सब निर्वासन झेल रहे हैं।

धूप भरी है झीलों में अब,

घोंसले भी अंडों को धकेल रहे हैं।


सिकुड़ गए हैं बादल सारे,

अब बारिश तूफान मे ढ़लने लगी है... 

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है।


गगन चीरते लोहे जैसे

पेड़ों की शाखें टूट रही है 

बादल भी बिन पानी भटकते अब

बेज़ान सी ज़मीं सूख रहीं हैं।


ओज़ोन का आँचल फटा है,

चाँद नहीं अब सुकून देता है ।

तारों की चुप्पी बतलाती

विनाश को आज्ञा कौन देता है ।


सृष्टि थक कर बैठ गई है,

अब सृजन विनाश मे बदलने लगी है

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है।


क़सूर किसका पूछ रहे हो,

आईना थामो — देखो खुद को।

हमने ही बोया था ज़हर,

क्यूँ आरोप लगाते हो रुत को।


प्लास्टिक की साँसों से हमने,

धरती की धड़कन को रोका है 

विकास के नाम पे लूटी वन सम्पदा,

जो विकास नहीं एक धोखा है।


अब याचना से कुछ न होगा,

जब बद्दुआ चुपके से पलने लगी है... 

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है।


अब भी वक़्त है लौट चलें हम,

बीज नई सोच के बोएँ।

पत्तों से फिर प्रार्थना हो,

धरती का जीवन संजोए ।


धरती माँ की मौन व्यथा को

गीतों में फिर ढालें प्यारे।

पेड़ उगें, छाँवें बरसें,

खेत खुले फिर नदियाँ पुकारें।


नतमस्तक हों प्रकृति के आगे 

क्योंकि प्रकृति विनाश की ओर चलने लगी है 

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है 

अब प्रकृति भी ज़हर उगलने लगी है...... 





28 comments:

  1. True lines...... Bhut badiya sir

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  2. नदी अपने रास्ते पर ही चली थी 1 हमें किस ने अधिकार दिया था उसके रास्ते पर घर बनाने का ? विचारणीय I

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    1. मनुष्य अपने ही अति महत्वाकांक्षी होने की सजा भोग रहा है, आपकी बात बिल्कुल सत्य है गुरुजी 🙏

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  3. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 07 अगस्त 2025 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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    1. मेरी रचना को शामिल करने के लिए बहुत बहुत आभार 🙏

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  4. प्रकृति के साथ ही ये जीवन है हमे ये बात भूलनी नही चाहिए वही हमारी माँ है उसके ममत्व के आँचल की छाँव लिए हम सब है , उसी के आँचल को अगर हम फटता देख रहे है , तो हम क्या इस करुणामयी के ममत्व स्नेह के अधिकारी है ?

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    1. आपकी इस प्रतिक्रिया के बहुत-बहुत धन्यवाद

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  5. सही है, मानव को अपने लोभ पर अंकुश लगाना होगा, प्रकृति का सम्मान करना सीख कर उसके साथ सामंजस्य पूर्ण जीवन शैली अपनानी होगी

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    1. आपने सही कहा महोदया, अब अंकुश लगाना ही होगा वर्ना ऐसी ही घटनाये होती रहेंगी

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  6. यार आपकी ये कविता पढ़कर मन भारी हो गया। आपने जो लिखा, वो हम रोज़ अपनी आंखों से देख रहे हैं लेकिन नज़रअंदाज़ कर देते हैं। हर शब्द में एक चेतावनी भर दी है, और सच कहूं तो ये सिर्फ कविता नहीं, एक ज़िम्मेदारी की पुकार है। प्लास्टिक, पेड़ों की कटाई, नदी की मौत, सब कुछ आपने ऐसे लिखा जैसे धरती खुद बोल रही हो।

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    1. आपकी इस प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार

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  7. प्रकृति कब तक इंतज़ार करे ... हद हो गई है शायद और इंसान है जो अपनी हद नहीं तयकर रहा ....

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    1. इसी बेलगाम ख्वाहिशों के चक्कर में ही आज लोग अपने और अपनों को खो रहा है 😞

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  8. प्रकृति का सम्मान करना सीखे

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    1. हमने तो हमेशा ही प्रकृति का सम्मान किया है, जिनका संपूर्ण जीवन ही प्रकृति के बीच बीता हो उनसे बेहतर कौन सम्मान कर सकता है प्रकृति का, हमने तो जो कुछ पाया है इन्हीं पहाड़ों से इसी प्रकृति से पाया है, मगर खोया भी बहुत कुछ है, हमे अपना घर अपना गाँव छोड़ना पड़ा, वहाँ तो विकास के नाम पे कोई विनाश भी नहीं हुआ था, आज भी जिस जगह मूलभूत सुविधाएं भी नहीं है, अचानक एक रोज़ प्रकृति की ऐसी मार पड़ती है बसा बसाया सबकुछ नष्ट हो जाता है, कुछ लोग अपनी जान गावा बैठते है, कई लोग बेघर हो जाते हैं, फिर भी हमे आज भी प्रकृति से कोई शिकायत नहीं है बस अफसोस होता है अपनी जन्म स्थान को ऐसे उजड़ते देख कर, पहले जिन कंदमूल फल को खा कर लोग अपने प्राण बचाते रहे थे इसी वर्ष 5 6 लोग अपनी जान गवां बैठे हैं, इसी लिए लिखा गया है ये कि प्रकृति भी जहर उगलने लगी है ||

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