उठेगा जनाज़ा एक रोज़ और फिर राख हो जाऊँगा मैं
होकर पंचतत्व मे विलीन शायद पाक हो जाऊँगा मैं
कुछ दिन सूना रहेगा मेरा कमरा और घर आँगन
फिर धीरे धीरे सबके लिए अख़लाक़ हो जाऊँगा मैं
किसी दीवार पर टंगी होगी फिर तस्वीर अपनी
तब परमात्मा ही तोड़ेगा मोह की जंजीर अपनी
भुला देगा मोह माया और संपति का लालच
फिर किसी नयी योनी मे बनानी होगी स्वयं तकदीर अपनी
फिर कोई बच्चा मेरी ही साँसों में जीवन पाएगा
मेरी परछाई बनके ही शायद वो भी मुस्कुराएगा
वो खेलेगा उन्हीं गलियों में जहाँ बचपन मेरा पला
पर न जाने कौन उसे मेरे बारे मे बतायेगा
शायद एक वृक्ष बन किसी छाँव का कारण बनूँगा
या किसी श्मशान की राख में फिर मौन सा सज़ूँगा
दुनिया के मेले में कोई नहीं रोकेगा पथ मेरा
क्योंकि मिट्टी हूँ मैं — पंचतत्व मे विलीन होकर भी रहूँगा
जिसे समझा मैंने "मेरा", सब यहीं रह जाएगा
तो आज जो हूँ, वही सत्य जीवन पर्यन्त नहीं है
बस आत्मा ही है जो चुपचाप सफर तय कर जाएगा
क्योंकि अंत भी तो जीवन का कोई अंत नहीं है...
सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार और धन्यवाद गुरुजी 🙏
DeleteBahut sundar, insan ki journey ko bakhubi darshaya gaya hai.keep written keep growing dear
ReplyDeleteशुक्रिया
DeleteMast ❤️😊😊😊😊😊😊😊
ReplyDeleteThank you
Deleteबहुत सुन्दर रचना 🙏
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया
DeleteBhaut khub ❤🌼
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