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Sunday, July 20, 2025

"मैं और तुम — एक अधूरी पूर्णता"...

मैं हूँ खुली किताब सा तेरे लिए 
तुम मेरे लिए एक पहेली हो
मै वीरान कोई मकान पुराना
तुम एक अलीशान हवेली हो

मैं बंजर जमीं का टुकड़ा सा 
तुम खेत खुले हरियाली हो
मै मुरझा एक टूटा पत्ता सा 
तुम कलियो की लाली हो

मैं बूंद बूंद बहता पानी
तुम सागर अपरम्पार हो 
मै धरा का एक हिस्सा मात्र 
तुम सारा ही संसार हो 

तुमसे ही हर रिश्ता है जग मे 
मैं उस रिश्ते की डोर हूं 
तुम शीतल चांद हो गगन की 
मैं तुमको तकता चकोर हूँ 

मैं भोर का हूँ एक डूबता तारा 
तुम प्रकाश दिनकर के हो 
मैं एक अभिशाप सा हूँ धरती पर 
तुम वरदान ईश्वर के हो

मैं सूनी राहों का एक मुसाफ़िर,
तुम मंज़िलों की कहानी हो।
मैं टूटी-बिखरी सी लकीर,
तुम किस्मत की निशानी हो।

मैं धूप की जलती छाया हूँ,
तुम सावन की रिमझिम बूँदें हो।
मैं अधूरी कोई आरज़ू,
तुम ख़्वाबों की सौगंधें हो।

मैं समय की धूल में खोया पल,
तुम कालचक्र की धुरी हो।
मैं एक अधूरा सा अध्याय,
तुम इक सदी पूरी हो।

मैं एक दबी चीख़ सा मौन,
तुम शंखनाद की वाणी हो।
मैं साधारण सी परछाईं,
तुम दिव्य ज्योति-कल्याणी हो।

मैं एक प्रश्न बनकर रह गया,
तुम हर उत्तर की धार हो।
मैं बस एक झलक भर हूँ,
तुम दृश्य सम्पूर्ण संसार हो।