आखिर तुम्हें क्या तकलीफ है पथिक
खामोश और तन्हा घूम रहे हो
सूरज भी झील मे डूब गया है,
और कोई पक्षी भी चहचहाता नहीं है।
आखिर तुम्हें क्या तकलीफ है पथिक
इतना गुमसुम और इतना दर्द ?
गिलहरी का भण्डार भरा हुआ है,
और नयी फसल पकने को है।
तुम्हारे माथे पर एक शिकन है,
पीड़ित नम पलके और रुआँसा के साथ,
तेरे सुर्ख गालों पर खिलता एक गुलाब
जल्दी मुरझा भी जाता है।
मैं स्वप्न में एक स्त्री से मिला,
जो हुस्न-ए-अप्सरा लिए थी ,
जिसके केशों ने पग छुए थे उसके
और आँखों मे समुद्र समाया था।
मैंने उसे सोलह श्रृंगार कराए,
और कंगन संग दिया इत्र भी
उसने मुझे यूँ प्यार से देखा
मानो सच्चा प्यार किया हो उसने भी |
मैंने उसे यूँ पलकों मे बिठाया,
फिर दिन भर कुछ और देखा नही,
पूर्णिमा के चांद सा चेहरा लिए ,
गुम हो गई वो बादलों मे कहीं ।
अब भी आंखे तलाश में उसके,
नित हर ओर उसे खोजती हैं
मानो कोई भोर का सपना,
जो मैंने देखा था कभी।
मैंने उसकी होंठों की उदासी में देखा,
एक भयानक चेतावनी और इंतकाम,
जब मैं जागा और खुद को पाया,
एक ठंडी पहाड़ी की तरफ।
और इसलिए मैं यहां भ्रमण करता हूं,
अकेला और बेरूखी लिए हुए,
मानो झील से सेज सूख गया हो,
और पक्षी भी कोई गाता नहीं यहाँ।
(हैरी)