करके खून पसीना एकरिश्तों को जिसने सींचा है,
सहकर दुनियाभर की पीड़ा
जिसने आंखों को मींचा है
तपती दुपहरी बिन चप्पल भी
सातों भँवर वो घूम रहा है
चिंता मे व्याप्त रहता हरपल
ना एक पल का भी सुकून रहा है
कौड़ी कौड़ी जोड़-जोड़कर
जिनके ख्वाबों का आगाज़ किया है
उसकी फटी एड़ियों का दर्द
उन सबने नजरअंदाज किया है
उसके फटे-पुराने कपड़े
उसकी मजबूरी दर्शाते हैं
जिसने बांँटा कौर भी खुद का
लो अब उसी के लिए तरसाते हैं
कितना खुदगर्ज हो रहा है इंसां
भुला बैठा जीवनदाता का उपकार
बूढ़े माँ बाबा को समझे बोझ
बढ़कर पिल्लों को देता है प्यार
आरंभ हो चुका है कलयुग, तम
धीरे-धीरे पैर पसार रहा है
पहले जड़ें जर्जर हुई नातों की
अब इंसानियत भी मार रहा है
कोई देश , कोई धर्म विरोधी
कहीं विरोध भाई–भाई का कर रहा है
समझ रहे हैं हम जहां की उन्नति
पर मेरी नजर में सब उजड़ रहा है।
क्या मोल है उस प्रगति का
जिसमें निज कुटुंब का भाव नहीं
निष्ठुर वृक्ष वह है खजूर सम,
अपनत्व की शीतल छाँव नहीं
दुःखी पड़ा है मनुज मुस्काता
तिस पर अंतर्मन में सुकून नहीं
विरक्त हो चुकी रक्त वाहनियाँ
अब किसी में पितृ सेवा का जुनून नहीं
भूल चुका चरणों मे इनके
खुदा ने जन्नत न्यौछारी है
आज जैसा वह कर रहा है
कल उसकी भी बारी है।।