धीरे-धीरे ज़िंदगी से बाज़ी हारी जा रही है,
अश्क़ों को आँखों में लिए, वो बेचारी जा रही है।
पहले नोचा जिस्म, फिर दिल के भी टुकड़े कर दिए,
मौत से बदतर अब वो, ज़िंदगी गुज़ारी जा रही है।
ऐसा क्या गुनाह किया कि, साँस भी रुकती नहीं,
मृत्यु भी उसको बस, दूर से निहारी जा रही है।
मुफ़लिसी थी वजह या, प्रेम करना महँगा पड़ा,
सरेआम ही उसकी अब, इज़्ज़त उतारी जा रही है।
नादानी में जो हुआ, उससे बस इतना गुनाह,
जिस्म तुझको सौंप दिया, रूह भटकती जा रही है।
पेट में जो पल रहा है, दोनों की नादानी का फल है
फिर अकेले ही वो क्यूँ, कुलटा पुकारी जा रही है?
तुम ही हो उसके, बहते ख़ून के ज़िम्मेदार,
फिर क्यों अकेली उसको, ये बीमारी खा रही है?
मानो या न मानो, ज़मीर कोसता तो होगा ही,
देख, ग़लतियों की एक, जिंदा लाश तुम्हारी जा रही है।
गुनाह तेरे थे और, गुनहगार उसको ठहरा दिया,
अब दर्द सहने की वही, तेरी बारी आ रही है।
उसका रोना और, मायूसी भरे हर लम्हा
देख लौटकर अब, हिसाब लेने सारी आ रही है
उजाड़ा था फूल किसी, लाचार बाप के आँगन का,
आज अपनी बेटी के लिए, बगिया सँवारी जा रही है।
कर्म है लौटकर आता है, यक़ीनन,
देख खून मे लथपथ, बेटी तुम्हारी आ रही है।|
Wednesday, October 22, 2025
“वो जो गुनहगार नहीं थी — एक जिंदा लाश की दास्तान”
Wednesday, October 15, 2025
जिंदगी :- एक अजीब सी किताब
ज़िंदगी, तू अजीब सी किताब है,
कभी आँसू, कभी हँसी का सैलाब है।
कभी धूप में जलती उम्मीदों का सागर,
कभी छाँव में ठहरी कोई ख़्वाब-सा गुलाब है।
तेरे हर पन्ने पे कुछ लिखा सा लगता है,
कहीं अधूरा, कहीं मुकम्मल जहान टिका सा लगता है।
कभी ठोकरें देती है रास्तों पे चलने को,
कभी हाथ पकड़ कर सहारा देती है संभलने को।
कभी तू शिकवा बनकर छलकती है आँखों से,
कभी दुआ बनकर ठहर जाती है होंठों पे।
कभी खामोशियों में भी बोल उठती है,
कभी भीड़ में भी तन्हाई का एहसास दिलाती है।
ज़िंदगी, तू सिखाती है —
हार में भी जीत की एक लकीर होती है,
हर अँधेरे के पीछे सुबह की ताबीर होती है।
गिरना भी मंज़िल का ही एक हिस्सा है,
सफलता के पीछे इंसान की तक़दीर होती है।
कभी दर्द, कभी गीत,
कभी मुस्कान, कभी प्रीत —
ज़िंदगी तू ना जाने कैसी पहेली है,
किसी के लिए सख्त प्रशिक्षक, किसी के लिए सहेली है।
Sunday, October 5, 2025
इकरार के आगे.....
दुनिया में बहुत कुछ है प्यार के आगे
सिर्फ मौत ही हल नहीं इंकार के आगे
पलकों पे सजाए रखें हैं तस्वीर तेरी लोग
लेकिन धुँधला पड़ जाता है दीदार के आगे
तेरी महफ़िल में बैठे ही जाँ देकर उठे
हम बचे कैसे रहते तेरे असरार के आगे
ग़म की सौग़ात लिए घूमे हैं सहरा-सहरा
दिल नहीं टिकता किसी भी गुलज़ार के आगे
तेरी आँखों का जादू है कि जंजीर का बोझ
क़ैद हो जाता है इंसाँ भी पहरेदार के आगे
जिस्म चाहे थक गया हो सफ़र की मुश्किल से
रूह रुक नहीं सकती अब मझधार के आगे
शबनमी ख्वाब सजे हैं तेरी पलकों के तले
चाँद भी सर झुकाता है रुख़सार के आगे
ख़ौफ़-ए-तन्हाई से डरता नहीं "हैरी" अब तो
रब की रहमत ही काफ़ी है ग़मगार के आगे
अब "स्याही" भी खामोश नहीं रह सकती दोस्त,
लफ़्ज़ सिर झुका देते हैं इकरार के आगे।
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मैं मिलावटी रिश्तों का धंधा नहीं करता बेवजह किसी को शर्मिदा नहीं करता मैं भलीभाँति वाकिफ हूँ अपने कर्मों से तभी गंगा मे उतर कर उसे गंदा...
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मैं कब कहाँ क्या लिख दूँ इस बात से खुद भी बेजार हूँ मैं किसी के लिए बेशकीमती किसी के लिए बेकार हूँ समझ सका जो अब तक मुझको कायल मेरी छवि का...



