वेतन बे वतन कर गई
अस्थायी ये नौकरी मेरी
ना जाने क्या क्या सितम कर गई
समय की परवाह बगैर
चाकी सा पिसता रहता हूं
वक्त से तालमेल बिठाने को
बे वक़्त घिसता रहता हूं
लहू मे भी घुल रहा
संघर्ष की अदृश्य गोलियाँ
बन रहा पाश्चात्य फिरंगी सा
भूल गया अपनी भाषा बोलियाँ
फिर भी कम लगती है उनको
मेरी मेहनत मजदूरियाँ
सल्फांस की गोलियाँ रखी है मगर
खाने नहीं देती मजबूरियाँ
नन्ही उम्र मे ही छोड़ आए थे
गाँव के चार चौपाल सब
अजनबी समझने लगे हैं
अपने ही बाल गोपाल अब
कमाई ने कम 'आय' ही दिया
सपनों मे संकट की बदली छा गई
अब किसको जा के बताऊँ 'जनाब'
तनख्वाह मेरी तन खा गई