बेरोजगार मेरे राज्य का, काँच सा बिखर गया
इम्तिहान देना चाहे मगर, घोटालों से डर गया
नियुक्तियां सारी नेता के, रिश्तेदार ऐसे खा गए
जैसे पालक की बेड़े को, खुला सांड कोई चर गया
विज्ञप्तियों के इंतजार मे, चश्मे का नंबर बढ़ गया
प्रतिस्पर्धा के दौड़ मे, वो खुद से ही पिछड़ गया
सोचा था पहाड़ रहकर, खुद का गाँव घर सुधारेंगे
मगर उसका हर ख्वाब, राजनीति के दलदल मे गड़ गया
फिर भी जुटा के हौसला, परिस्थितियों से वो है लड़ गया
ना वक़्त ने साथ दिया, और अपनों से भी बिछड़ गया
अब नाकामियाँ मजबूर यूँ, हारने को उसे कर रहीं
जैसे बिन पका फल, डाली ही पर हो सड़ गया
दीमक लग रहीं प्रतिभा पर, दिमागी संतुलन भी बिगड़ गया
फिर भी सफ़लता पाने को, वो किस्मत के आगे अड़ गया
अंत मे हार कर जला दी सपने और सारी डिग्रियां
फिर एक और बेरोजगार आज, हारकर फांसी पे चढ गया