Thursday, July 24, 2025

बेबस सच....


 

कौडियों के दाम जब बिक रहे ज़ज्बात ग़र
कैद खाना सा लगे जब स्वयं का ही घर
फिर किस जगह जाकर मिले कतरा भर सुकून
जब आंख मूँदते ही सताये भविष्य का डर

जब बिन विषधर के ज़ुबां उगलने लगे ज़हर
शब्द जब बन जाएँ तीर, और ढाल रहे बेअसर
फिर क्यों न टूटे कोई, जैसे पतझड़ में पत्ता
जब जिस्म बेच फिर भी चूल्हा न जले घर का अगर

मजबूरियों का फंदा तभी घोटता है साँस को
जब झूठ का शोर दबा दे सच की आवाज़ को
कौन करेगा बेवजह इच्छाओं का तर्पण यूँही
कुछ तो रोक रहा होगा हौसलों के परवाज को

किसका करता है मन त्यागना जहान को,
मुफलिसी छीन लेती है ख्वाब और अरमान को।
जब भीतर ही बसी हो बेचैनी हर घड़ी,
तो मौत भी लगे राहत फिर थके इंसान को।|

18 comments:

  1. Mast ❤️❤️❤️❤️❤️

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    1. बहुत बहुत आभार गुरुजी

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  3. वाह्ह बहुत अच्छी पंक्तियाँ...समाज और मानव मन की बारीकियों को उकेरती कृति।
    सादर
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    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २५ जुलाई २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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    1. पांच लिंकों का आनंद मे मेरी कविता को स्थान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद 🙏

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    2. It's a very very very nice 👌👌👌👍

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  4. समाज को प्रतिबिंबित करती रचनाएं अद्वितीय हैं अभिनंदन सह । 🙏

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया महोदय

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  5. मन में छुपे दर को बेहतरीन अंदाज़ में बाँधा है ...

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    1. बहुत बहुत आभार महोदय 🙏

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