Saturday, June 7, 2025

मैं धरती हूँ.....



मैं धरती हूँ...
कभी रंगों से भरी थी, अब वीरान हो गई हूँ।
कभी बच्चों की हँसी से गूंजती थी,
अब मशीनों की गूँज में खो गई हूँ।

मेरे आँचल में फूल थे, अब केवल बची झाड़ियाँ है,
मेरे दिल में नदियाँ थीं, अब शोर मचाती गाड़ियां है।
पेड़ जो मेरी साँस थे, कट गए प्रगति के नाम पर,
और तू चुप रहा, भरता रहा सिर्फ अपना घर।

तू खो गया है — शहरों की चकाचौंध में,
पर भूल गया — मैं ही तेरी साँसों की आधार हूँ।
वो बारिशें जो कभी तुम्हें कभी झूमने को करती थीं बेबस,
आज मैं खुद उन बूँदों को तरसती हताश और लाचार हूं।

मैं थक गई हूँ, सच में…
हर दिन एक ज़हर पीती हूँ तुम्हारे विकास के नाम पर,
और मुस्कुराती हूँ, क्योंकि माँ हूँ — पर अब घुट रही हूँ
अब तो थोड़ा मेरे हक मे भी इन्साफ कर|

अब भी अगर ना चेते,
तो ये हरियाली सिर्फ पुरानी तस्वीरों में होगी।
ये फूल सिर्फ किताबों में मिलेंगे,
और बच्चों के लिए ‘पेड़’ एक ड्राइंग बन जाएगा।

तो उठो…
ये सिर्फ पर्यावरण दिवस नहीं —
ये मेरी अंतिम पुकार है,
एक माँ की चीख़ —
जो अब भी चाहती है कि उसका बच्चा सुधर जाए|




Tuesday, May 27, 2025

दुनिया जालिम है....


 

दुनिया ज़ालिम है —
ये कोई शायर की शेख़ी नहीं,
बल्कि रोज़ सुबह की ख़बर है,
जिसे अख़बार भी छापते-छापते थक चुका है।

यहां आँसू ट्रेंड नहीं करते,
दर्द को 'डिज़ाइन' किया जाता है,
और सच्चाई?
वो तो शायद किसी पुरानी किताब के पन्नों में
धूल फाँक रही है।

यहां रिश्ते
व्हाट्सऐप के आख़िरी देखे गए समय जितने सच्चे हैं,
और भरोसा —
पासवर्ड की तरह, हर महीने बदलता रहता है।

बच्चे सपनों में खिलौने नहीं,
रखते हैं नौकरी की चिंता,
और बूढ़े,
यादों की गर्मी में ज़िंदा रहने की कोशिश करते हैं।

दुनिया ज़ालिम है,
क्योंकि यहां सवाल पूछना गुनाह है,
और खामोशी —
इंसान की सबसे क़ीमती पूंजी।

पर फिर भी,
हम हर सुबह उठते हैं,
चेहरे पे उम्मीद का मास्क लगाते हैं,
और चल पड़ते हैं —
इस ज़ालिम दुनिया को थोड़ा बेहतर बनाने की कोशिश में।|


Saturday, April 12, 2025

तुम राम बनो या रहीम...


 तुम राम बनो रहीम बनो, 
इस देश के महामहिम बनो 
और तोल सके जो धर्म-अधर्म को, 
तुम वो आधुनिक मशीन बनो...

सत्ता का तुम को गर्व ना हो, 
ना सिर्फ जीत की अभिलाषा हो
तुमसे भय हो हर सशक्त को  
पर तुमसे हर गरीब को आशा हो

तेरे बल से तू जग को जीते 
पर कर्म परायण हो युधिष्ठिर जैसा 
जब बात न्याय धर्म की आये 
निर्णय में अपना पराया कैसा 

जैसे भेद न करता सूर्य 
राजा और रंक मे 
जैसे शीतलता देने की है प्रकृति 
कोशों मील धूम रहे मयंक मे

तू भी अपना धर्म निभाना 
वजह झगड़े की जड़, जोरु या ज‌मीन हो 
तुम हो प्रधान सेवक जनमानस के 
चाहे ओहदे से महामहिम हो ||
                                जय हिन्द।


Friday, March 14, 2025

शिक्षा : जीवन का आधार


 

तुम हो धूर्त, तुम हो ढीठ,
तुम हो श्वान के दुम की रीड़
तुम को समझाया लाख मगर
फिर भी गलतियाँ करते हो रिपीट (Repeat)

ना तुमको गुरुजी के छड़ी का भय
ना तुमको अपमान का संशय
हर वक़्त सजा की पंक्ति में खड़े
फिर क्यूँ न करते सत मार्ग को तय

शिक्षा तुमको लगती बोझ
मजबूरी मे ढोते बस्ते को रोज
बे मन से ग्रहण की गई शिक्षा
सिर्फ पैदा करती है संकोच

गर ध्यान से ज्ञान करो अर्जित,तो
विधुर से विद्वान बन जाते है
इस कालखण्ड के कर्म-चक्र से
सदि‌यों तक यश ही पाते हैं

शिक्षा ही है जो ज्ञान दिलाती
इस भूमण्डल में सम्मान दिलाती
चहुमुखी व सम्पूर्ण विकास कर
जुगुनू सा प्रकाश फैलाती

तो करो परिश्रम बन जाओ अफसर
फिर नवराष्ट्र निर्माण करो योग्य बनकर
शिक्षा वो पाक साफ अमृत है
असमर्थ भी सक्षम हो जाता जिसको पीकर ||


 

Tuesday, February 18, 2025

फिर श्रृंगार नहीं होता......

 

बिन शब्दों का कभी भी
वाक्य विस्तार नहीं होता
जैसे बिन खेवनहार के
भव सागर पार नहीं होता

ऊँचा कुल या ऊँची पदवी से
बिन रिश्ते व्यापार नहीं होता
गाँठ पड़े हुये रिश्तों में तो
पूर्ण अधिकार नहीं होता

झूठ, फरेब या लालच का
सदैव जय-जयकार नहीं होता
सच कष्टदायी जरूर होता है
मगर परिणाम बेकार नहीं होता

मन दुःखी और तन पीड़ित हो
फिर श्रृंगार नहीं होता
छालिया कितना भी शातिर हो
छल हर बार नहीं होता

पहली साजिश से सबक
अंतिम प्रहार नहीं होता
मात मिली हो जिस रिश्ते से
फिर उस रिश्ते को मन तैयार नहीं होता

कवि की कपोल कल्पनाओं में
पूर्ण सच्चाई का आधार नहीं होता
हर बात लिखी हो जो कोरे कागज पे
वैसा ही संसार नहीं होता ||


Thursday, January 2, 2025

करीब करीब सच...


 

बाहों में किसी के ख्वाबों मे कोई और है
गलती तेरी भी नहीं कमबख्त बेवफाई का ही दौर है
कैसे तू भी किसी एक की हो कर रह सकती है ताउम्र
कहां हुस्न पर इश्क की पाबंदियों का अब जोर है

इस स्टेपनी वाले ज़माने मे कहां गुजारा होगा एक बंदे से
तमाम खानदानो का घर चलता है इस बेवफाई के धंधे से
इश्क पे भारी पड़ने लगी है दौलत ए हुस्न की कालाबाजारी
जबरन खुद का ही घर जलाया जाता है नादां परिंदे से

जिसको तौला नहीं जा सकता उसे तौल रहे हैं लोग
चंद रुपयों के लिए खुद से भी झूठ बोल रहे है लोग
ना जाने कैसा दौर आ गया कमबख्त फरेबी लोगों का
इतिहास छोड़कर रिश्तों मे देख भूगोल रहे हैं लोग

झूठा साबित करने मे लगे हैं हर रिश्ते की तस्वीर को
मोहब्बत से भी ऊपर रखते हैं लोग जागीर को
पागल हुए फिरते हैं देखने को ताजमहल 'मगर'
कौन समझ पाया है यहाँ मुमताज की तकदीर को

यकीनन अब रांझा भी छोड़ सकता है हीर को
कोई क्यूँ सुनेगा अब बुल्लेशाह सरीखे फकीर को
सही गलत से क्या ही फरक पडता है किसी को यहां
जहां पवित्र आत्मा से ज्यादा तवज्जो मिलती हो शरीर को ||