Thursday, July 24, 2025
बेबस सच....
Sunday, July 20, 2025
"मैं और तुम — एक अधूरी पूर्णता"...
Friday, July 11, 2025
छलावा : The Beautiful illusion
अति ऐतबार भी रिश्तों को अक्सर डूबा देता है
लगी हो आग जिंदगी में तो पत्ता- पत्ता हवा देता है
लिहाज़ रखते- रखते रिश्ते का बेहिसाब लुटे हम
ज़ख्म नासूर बना हो तो मरहम भी सजा देता है
ख्याल आया है फिर ख्वाहिशों में रहने वाले का
और याद भी आया है तिरस्कार, झूठे हवाले का
हमें तो जूठन भी लज़ीज़ लगा करती थी उसकी
देना पड़ा हिसाब उसे ही एक -एक निवाले का
पाया था उसे अपना सबकुछ गवारा करके
हमीं से ही बैठा है नासमझ किनारा करके
उससे बिछड़ने का ख़्याल भी बिखरा देता था हमें
चल दिया है आज हमें वह बेसहारा करके
डूबना ही गर मुकद्दर है, तो डूबा ले पानी
हम तो चुल्लू में डूबने से हो बैठे हैं नामी
उसकी तो निगाहें भी काफ़ी थीं हमें डुबाने को...
जाने क्यों झूठ की उसे लानी पड़ी होगी सुनामी
Friday, July 4, 2025
"भड़ास : एक अनसुनी चीख़"
कोई नहीं पढ़ता मेरी लिखी कहानियां
बातें भी मेरी लगती उनको बचकानियां
लहू निचोड़ के स्याही पन्नों पे उतार दी..
फिर भी मेहनत मेरी उनको लगती क्यूँ नादानियां?
कल जब सारा शहर होगा मेरे आगे पीछे.....
शायद तब मेरी शोहरत देगी उनको परेशानियां
मैं उनको फिर भी नहीं बताऊँगा उनकी हकीकत
मैं भूल नहीं सकता खुदा ने जो की है मेहरबानियां |
आज थोड़ा हालत नाजुक है तो मज़ाक बनाते सब
मेरी सच्चाई मे भी दिखती है उनको खामियां
मेरा भी तो है खुदा वक्त़ मेरा भी बदलेगा वो
मेरी भी तो खुशियों की करता होगा वो निगेहबानियां|
मुझको हुनर दिया है तो पहचान भी दिलाएगा वो
यूँही नहीं देता वो कलम हाथों मे सबको मरजानियां
आज खुद का ही पेट भर पा रहे हैं भले...
कल हमारे नाम से लंगर लगेगें शहर मे हानिया |
थोड़ा सब्र कर इतनी जल्दी ना लगा अनुमान
सफलता के लिए कुर्बान करनी पड़ती है जवानियां
मैं एक एक कदम बढ़ रहा हूँ अपनी मजिल की ओर
शोहरत पाने को करनी नहीं कोई बेमानियां||
हमने तो चींटी से सीखा है मेहनत का सलीका
हमे तनिक विचलित नहीं करती बाज की ऊंची उडानियां
वो जो तुम आज बेकार समझ के मारते हो ताने मुझे
कल तुम्हारे बच्चे पढ़ेंगे मेरी कहानियाँ.... ♥️
Friday, June 27, 2025
"घरेलू हिंसा: दीवारों के पीछे की अनसुनी चीखें"
गालियाँ गूंजती रहीं... और टी.वी. चलता रहा।
दर्द फर्श पर बह गया,
मगर घर की इज़्ज़त सलामत रही…"
🔴 घर — जहाँ हिंसा को 'परिवार का मामला' कहा जाता है
घर, जिसे सबसे सुरक्षित जगह माना जाता है,
कई औरतों, बच्चों और यहाँ तक कि पुरुषों के लिए सबसे बड़ा पिंजरा बन चुका है।
हर दिन, लाखों आत्माएँ दीवारों के बीच घुट रही हैं —
कुछ आवाजों की दम घोंट दिया जाता है,
कुछ के आँसू "घर की बात" कहकर पोंछ दिए जाते हैं।
🔸 घरेलू हिंसा क्या सिर्फ शारीरिक होती है?
नहीं।
घरेलू हिंसा सिर्फ थप्पड़ों, लातों या जलती सिगरेट से नहीं होती।
वो जब एक पति हर बात पर चिल्लाता है — ये मानसिक हिंसा है।
जब एक पत्नी लगातार ताने देती है — ये भावनात्मक उत्पीड़न है।
जब एक सास बहू की हर चीज़ पर हुक्म चलाती है — ये भी हिंसा है।
जब एक बच्चे से उसका आत्मविश्वास छीन लिया जाता है — वो भी घरेलू हिंसा है।
हिंसा का सबसे घातक रूप वो होता है — जो दिखाई नहीं देता।
🔹 क्यों चुप रहते हैं पीड़ित?
“लोग क्या कहेंगे”
“बच्चों का क्या होगा”
“घर टूट जाएगा”
“कहाँ जाएँगे?”
“इतने सालों से सहा है, अब क्या फर्क पड़ेगा…”
समाज ने डर इतना गहरा बो दिया है कि लोग दर्द में जीना सीख लेते हैं,
पर सच बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।
🔸 कुछ चीखें जो सुनाई नहीं देतीं…
राधा रोज़ पति के हाथों पिटती है,
पर सुबह फिर बिंदी लगाकर ‘सुशील पत्नी’ बन जाती है।
आरव, एक 12 साल का बच्चा,
हर दिन अपने पिता की गालियों से, माँ की आँखों से डरता है —
पर कहता है: “पापा तो अच्छे हैं, बस गुस्सा जल्दी आ जाता है।”
शमीमा, एक पढ़ी-लिखी महिला,
सिर्फ इसलिए चुप है क्योंकि तलाक ‘कबीले की इज़्ज़त’ मिटा देगा।
हर रोज़, दुनिया भर में हज़ारों महिलाएँ, पुरुष और बच्चे अपने ही घर की चारदीवारी में हिंसा का शिकार होते हैं।
भारत जैसे देश में, जहाँ परिवार को ‘संस्कार’ का गढ़ माना जाता है, वहीं पर घरेलू हिंसा सबसे अनदेखा अपराध बन चुका है।
🔴 घरेलू हिंसा — एक मौन महामारी
“जहाँ सबसे ज़्यादा प्रेम होना चाहिए था,
वहीं सबसे ज़्यादा चीखें दबा दी जाती हैं…”
📊 भारत में घरेलू हिंसा के वास्तविक आँकड़े:
(Source - magazines and Google)
🔸 राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) - 2023 रिपोर्ट के अनुसार:-
33.1% विवाहित महिलाएँ भारत में अपने जीवनकाल में कभी न कभी घरेलू हिंसा की शिकार रही हैं।
हर 4 में से 1 महिला ने माना कि पति या ससुराल वालों ने उन्हें शारीरिक या मानसिक रूप से प्रताड़ित किया।
2023 में 66,692 केस दर्ज हुए "Cruelty by Husband or Relatives" (IPC 498A) के तहत — यानी औसतन हर 8 मिनट में एक मामला।
🔸 UN Women और WHO के अनुसार:
दक्षिण एशिया में भारत उन देशों में शामिल है जहाँ घरेलू हिंसा की रिपोर्टिंग सबसे कम होती है।
WHO के मुताबिक, दुनियाभर की 1 में से 3 महिलाएँ अपने जीवनकाल में intimate partner violence का शिकार होती हैं।
🔸 बाल घरेलू हिंसा:
UNICEF के मुताबिक, भारत में हर दूसरा बच्चा किसी न किसी रूप में मानसिक या शारीरिक हिंसा का शिकार होता है।
अधिकतर बच्चों में यह हिंसा "घर के अंदर" होती है — माँ-बाप या रिश्तेदारों द्वारा।
⚫ लेकिन ये सिर्फ दर्ज केस हैं…
ये आंकड़े सिर्फ वो हैं जो रिपोर्ट किए गए।
भारत में घरेलू हिंसा की असली संख्या इससे कई गुना ज़्यादा है — क्योंकि:-
पीड़िता को सामाजिक बदनामी का डर है
आर्थिक निर्भरता उन्हें चुप रखती है
पुलिस में जाने से ‘घर की इज़्ज़त’ पर सवाल उठता है
और कई बार परिवार ही शिकायत वापस लेने को मजबूर कर देता है
“सब सह लो… पर घर मत तोड़ो” — यही कहता है समाज।
🧠 घरेलू हिंसा के प्रभाव:
शारीरिक चोट, गर्भपात, अपंगता, मृत्यु
मानसिक डिप्रेशन, आत्महत्या के विचार, PTSD (Post-Traumatic Stress Disorder.),
आर्थिक नौकरी छूटना, वित्तीय निर्भरता
सामाजिक अलगाव, आत्म-विश्वास की कमी, बच्चों पर नकारात्मक असर
🕯️ क्या किया जा सकता है?
✅ जागरूकता:
स्कूलों, कॉलेजों और पंचायत स्तर पर workshops की ज़रूरत है
समाज को सिखाना होगा कि "चुप रहना भी अपराध है"
✅ सहायता केंद्र:
181 Women Helpline (National)
One Stop Centre Scheme (OSC) — महिलाओं के लिए शेल्टर और काउंसलिंग
Childline 1098 — बच्चों के लिए
112 — आपातकालीन हेल्पलाइन (पुलिस, महिला सुरक्षा सहित)
✅ क़ानूनी अधिकार:
घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 — महिलाओं को संरक्षण, निवास, भरण-पोषण और क़ानूनी सहायता का अधिकार
धारा 498A (IPC) — पति/ससुराल वालों की क्रूरता पर सज़ा
⚫ समाज कब बोलेगा?
क्या हमारा समाज तभी बोलेगा जब लाश मिलेगी?
क्या अब भी घरेलू हिंसा को “अंदर का मामला” कहा जाएगा?
“जिस दिन हर दीवार गवाही देने लगेगी,
उस दिन इंसाफ़ खुद चलकर आएगा।”
✊ निष्कर्ष:
"घरेलू हिंसा सिर्फ एक व्यक्ति का दर्द नहीं — यह समाज की चुप्पी का कलंक है।"
जब तक हम इन चीखती आत्माओं की आवाज़ नहीं बनेंगे, तब तक ये स्याह कहानियाँ यूँ ही दबी रहेंगी।
अब समय है बोलने का।
क्योंकि हर चीख़ इंसाफ़ की हक़दार है।
जय हिन्द जय भारत 🙏
Tuesday, June 17, 2025
"ज्वलंत प्रश्न — खामोशियों को चीरती आवाज़"
Wednesday, June 11, 2025
दिखावे से इंकार...
मैं मिलावटी रिश्तों का धंधा नहीं करता
बेवजह किसी को शर्मिदा नहीं करता
मैं भलीभाँति वाकिफ हूँ अपने कर्मों से
तभी गंगा मे उतर कर उसे गंदा नही करता ||
जिस्म तो धों लेते हैं लोग ज़मज़म के पानी से
मगर मरी हुई रूह कोई जिंदा नहीं करता
अक्सर घाटों पे उमड़ी भीड़ याद दिलाती है मुझे
गलत कर्म सिर्फ दरिन्दा नहीं करता ||
हजार वज़ह दिए हैं ज़माने ने बेआबरू होने का
मगर मैं किसी बात की अब चिंता नहीं करता
भेड़िये के खाल मे छिपे हर शख्स से हूँ रूबरू
तभी कभी किसी से कुछ मिन्ता नहीं करता ||
वो जो ज्ञान की पाठशाला खोल के बैठे हैं
घर पे कभी हरे कृष्णा हरे गोविंदा नहीं करता
दिखावट से तो लगता सारे वेदों का ज्ञाता
मगर बाते उसकी जैसी कोई परिंदा नहीं करता ||
आम आदमी तो यूँ ही बदनाम है बेरूखी के लिए
भूखे पेट भजन कोई बाशिंदा नहीं करता
बखूबी जानता हूं असलियत सभ्य समाज की
मैं बेफिजूल किसी की निंदा नहीं करता ||
Saturday, June 7, 2025
मैं धरती हूँ.....
Tuesday, May 27, 2025
दुनिया जालिम है....
दुनिया ज़ालिम है —
ये कोई शायर की शेख़ी नहीं,
बल्कि रोज़ सुबह की ख़बर है,
जिसे अख़बार भी छापते-छापते थक चुका है।
यहां आँसू ट्रेंड नहीं करते,
दर्द को 'डिज़ाइन' किया जाता है,
और सच्चाई?
वो तो शायद किसी पुरानी किताब के पन्नों में
धूल फाँक रही है।
यहां रिश्ते
व्हाट्सऐप के आख़िरी देखे गए समय जितने सच्चे हैं,
और भरोसा —
पासवर्ड की तरह, हर महीने बदलता रहता है।
बच्चे सपनों में खिलौने नहीं,
रखते हैं नौकरी की चिंता,
और बूढ़े,
यादों की गर्मी में ज़िंदा रहने की कोशिश करते हैं।
दुनिया ज़ालिम है,
क्योंकि यहां सवाल पूछना गुनाह है,
और खामोशी —
इंसान की सबसे क़ीमती पूंजी।
पर फिर भी,
हम हर सुबह उठते हैं,
चेहरे पे उम्मीद का मास्क लगाते हैं,
और चल पड़ते हैं —
इस ज़ालिम दुनिया को थोड़ा बेहतर बनाने की कोशिश में।|
Saturday, April 12, 2025
तुम राम बनो या रहीम...
ना सिर्फ जीत की अभिलाषा हो
तुमसे भय हो हर सशक्त को
पर तुमसे हर गरीब को आशा हो
जैसे भेद न करता सूर्य
राजा और रंक मे
जैसे शीतलता देने की है प्रकृति
कोशों मील धूम रहे मयंक मे
तू भी अपना धर्म निभाना
वजह झगड़े की जड़, जोरु या जमीन हो
तुम हो प्रधान सेवक जनमानस के
चाहे ओहदे से महामहिम हो ||जय हिन्द।
Friday, March 14, 2025
शिक्षा : जीवन का आधार
तुम हो धूर्त, तुम हो ढीठ,
तुम हो श्वान के दुम की रीड़
तुम को समझाया लाख मगर
फिर भी गलतियाँ करते हो रिपीट (Repeat)
ना तुमको गुरुजी के छड़ी का भय
ना तुमको अपमान का संशय
हर वक़्त सजा की पंक्ति में खड़े
फिर क्यूँ न करते सत मार्ग को तय
शिक्षा तुमको लगती बोझ
मजबूरी मे ढोते बस्ते को रोज
बे मन से ग्रहण की गई शिक्षा
सिर्फ पैदा करती है संकोच
गर ध्यान से ज्ञान करो अर्जित,तो
विधुर से विद्वान बन जाते है
इस कालखण्ड के कर्म-चक्र से
सदियों तक यश ही पाते हैं
शिक्षा ही है जो ज्ञान दिलाती
इस भूमण्डल में सम्मान दिलाती
चहुमुखी व सम्पूर्ण विकास कर
जुगुनू सा प्रकाश फैलाती
तो करो परिश्रम बन जाओ अफसर
फिर नवराष्ट्र निर्माण करो योग्य बनकर
शिक्षा वो पाक साफ अमृत है
असमर्थ भी सक्षम हो जाता जिसको पीकर ||
Tuesday, February 18, 2025
फिर श्रृंगार नहीं होता......
बिन शब्दों का कभी भी
वाक्य विस्तार नहीं होता
जैसे बिन खेवनहार के
भव सागर पार नहीं होता
ऊँचा कुल या ऊँची पदवी से
बिन रिश्ते व्यापार नहीं होता
गाँठ पड़े हुये रिश्तों में तो
पूर्ण अधिकार नहीं होता
झूठ, फरेब या लालच का
सदैव जय-जयकार नहीं होता
सच कष्टदायी जरूर होता है
मगर परिणाम बेकार नहीं होता
मन दुःखी और तन पीड़ित हो
फिर श्रृंगार नहीं होता
छालिया कितना भी शातिर हो
छल हर बार नहीं होता
पहली साजिश से सबक
अंतिम प्रहार नहीं होता
मात मिली हो जिस रिश्ते से
फिर उस रिश्ते को मन तैयार नहीं होता
कवि की कपोल कल्पनाओं में
पूर्ण सच्चाई का आधार नहीं होता
हर बात लिखी हो जो कोरे कागज पे
वैसा ही संसार नहीं होता ||
Thursday, January 2, 2025
करीब करीब सच...
बाहों में किसी के ख्वाबों मे कोई और है
गलती तेरी भी नहीं कमबख्त बेवफाई का ही दौर है
कैसे तू भी किसी एक की हो कर रह सकती है ताउम्र
कहां हुस्न पर इश्क की पाबंदियों का अब जोर है
इस स्टेपनी वाले ज़माने मे कहां गुजारा होगा एक बंदे से
तमाम खानदानो का घर चलता है इस बेवफाई के धंधे से
इश्क पे भारी पड़ने लगी है दौलत ए हुस्न की कालाबाजारी
जबरन खुद का ही घर जलाया जाता है नादां परिंदे से
जिसको तौला नहीं जा सकता उसे तौल रहे हैं लोग
चंद रुपयों के लिए खुद से भी झूठ बोल रहे है लोग
ना जाने कैसा दौर आ गया कमबख्त फरेबी लोगों का
इतिहास छोड़कर रिश्तों मे देख भूगोल रहे हैं लोग
झूठा साबित करने मे लगे हैं हर रिश्ते की तस्वीर को
मोहब्बत से भी ऊपर रखते हैं लोग जागीर को
पागल हुए फिरते हैं देखने को ताजमहल 'मगर'
कौन समझ पाया है यहाँ मुमताज की तकदीर को
यकीनन अब रांझा भी छोड़ सकता है हीर को
कोई क्यूँ सुनेगा अब बुल्लेशाह सरीखे फकीर को
सही गलत से क्या ही फरक पडता है किसी को यहां
जहां पवित्र आत्मा से ज्यादा तवज्जो मिलती हो शरीर को ||
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इस वीभत्स कृत्य का कोई सार नहीं होगा इससे बुरा शायद कोई व्यवहार नहीं होगा तुम्हें मौत के घाट उतार दिया कुछ नीच शैतानों ने सिर्फ मोमबत्ती ...
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हया भी कोई चीज होती है अधोवस्त्र एक सीमा तक ही ठीक होती है संस्कार नहीं कहते तुम नुमाइश करो जिस्म की पूर्ण परिधान आद्य नहीं तहजीब होती है ...